Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 277
________________ २६३ मानवान् शानदानेन निर्भयोऽमयदानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं निर्व्याधिर्भेषजाद्भवेत् ॥ ६९ ॥ येनाकारेण मुक्तात्मा शुक्लध्यानप्रभावतः । तेनायं श्रीजिनोदेवो बिम्बाकारेण पूज्यते ॥ ७२ ॥ आप्तस्यासन्निधानेऽपि पुण्यायाकृतिपूजनम् । तार्शमुद्रा न किं कुर्युर्विषसामर्थ्यसूदनम् ॥ ७३ ॥ जन्मजन्म यदभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः। तेनैवाभ्यासयोगेन तत्रैवाभ्यस्यते पुनः ॥ ७४ ॥ अष्टमी चाष्टकर्माणि सिद्धिलामा चतुर्दशी। पंचमी केवलक्षानं तस्मात्तत्र यमाचरेत् ॥ ७९ ॥ . कालक्षेपो नकर्तव्य आयुःक्षीणं दिने दिने । यमस्य करुणा नास्ति धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥ ९४॥ अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥१५॥ जीवंतं मृतकं मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्। मृतो धर्मेण संयुको दीर्घजीवी भविष्यति ॥ ९६ ॥ छपी हुई प्रतिसे इन प्रतियोंमें अधिक पद्य कोई नहीं है; क्रम-भेदका उदाहरण सिर्फ एक ही पाया जाता है और वह यह है कि, छपी हुई प्रतिमें जो पद्य ५. और ५१ नम्बरों पर दिये है वे पद्य इन प्रतियोंमें क्रमशः ३९ और ३८ नम्बरों परअर्थात् , भागे पीछे-पाये जाते हैं। रही पाठभेदकी बात, वह कुछ उपलध जरूर होता है और कहीं कहीं इन दोनों प्रतियों में परस्पर भी पाया जाता है। परंतु वह भी कुछ विशेष महत्व नहीं रखता और उसमें ज्यादातर छापे की तथा लेखकों की भूलें शामिल हैं। तो भी दो एक खास खास पाठभेदोंका यहाँ परिचय करा देना मुनासिब मालूम होता है; और वह इस प्रकार है (१) तीसरे पद्यमें 'निर्ग्रन्थः स्यात्तपस्वी च' ( तपस्वी निर्ग्रन्य होता है) के स्थानमें आराकी प्रतियोंमें 'निर्ग्रन्येन भवेन्मोक्षः' (निग्रंथ होनेसे मोक्ष होता है ) ऐसा पाठ दिया है। देहलीवाली प्रतिमें भी यही पाठ 'निर्ग्रन्य न भवे. न्मोक्षः' ऐसे अशुद्ध रूपसे पाया जाता है। (२) छपी हुई प्रतिके ३० वे पद्यमें 'न पापं च अमी देयाः' ऐसा जो एक चरम है वह ताडपत्रवाली प्रतिमें भी वैसा ही है। परंतु आराकी दूसरी प्रतिमें उसका रूप 'न परेषाममीदेयाः' ऐसा दिया है और देहलीवाली प्रतिमें वह 'न दातव्या इमे नित्यं ' इस रूपमें उपलब्ध होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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