Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 282
________________ २६८ पाशमण्डलमार्जारविषशस्त्रकृशानवः । न पापं च अमी देयास्तृतीयं स्याद्गुणवतम् ॥ १९ ॥ इसमें अनर्थदंडविरतिका सर्वार्थसिद्धिवाला लक्षण नहीं है और न उसके पाँच मेदोंका कोई उल्लेख है। बल्कि यहाँ इस व्रतका जो कुछ लक्षण अथवा स्वरूप वतलाया गया है वह अनर्थदंडके पाँच भेदोंमें से ' हिंसाप्रदान' नामके चौथे भेद की विरतिसे ही सम्बन्ध रखता है। इसलिये, सर्वार्थसिद्धिकी दृष्टिसे, यह लक्षण लक्ष्यके एक देशमें व्यापनेके कारण अव्याप्ति दोषसे दूषित है, और कदापि सर्वार्थसिद्धिके कर्ताका नहीं हो सकता। ___ इस प्रकारके विभिन्न कथनोंसे भी यह ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धिके कर्ता श्रीपूज्यपाद स्वामीका बनाया हुआ मालून नहीं होता, तब यह ग्रन्थ दूसरे कौनसे पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है और कब बना है, यह बात अवश्य जाननेके योग्य है और इसके लिये विद्वानोंको कुछ विशेष अनुसंधान करना होगा। मेरे खयालमें यह ग्रन्थ पं० आशाधरके बादका-१३ वीं शताब्दीसे पीछेका बना हुआ मालूम होता है। परंतु अभी मैं इस बातको पूर्ण निश्चयके साथ कहनेके लिये तय्यार नहीं हूँ। विद्वानोंको चाहिए कि वे स्वयं इस विषयकी खोज करें, और इस बातको मालूम करें कि किन किन प्राचीन ग्रन्थोंमें इस ग्रन्थके पद्योंका उल्लेख पाया जाता है। साथही, उन्हें इस ग्रन्थकी दूसरी प्राचीन प्रतियोंकी भी खोज लगानी चाहिए। संभव है कि उनमेंसे किसी प्रतिमें इस ग्रन्यकी प्रशस्ति उपलब्ध हो जाय । __ इस लेखपरसे पाठकोंको यह बतलानेकी जरूरत नहीं है कि भंडारोंमें कितने ही ग्रन्थ कैसी संदिग्धावस्थामें मौजूद हैं, उनमें कितने अधिक क्षेपक शामिल हो गये हैं और वे मूल ग्रन्थकर्ताकी कृतिको समझनेमें क्या कुछ भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं । ऐसी हालतमें, प्राचीन प्रतियों परसे ग्रन्थोंकी जाँच करके उनका यथार्थ स्वरूप प्रगट करनेकी और उसके लिये एक जुदाही विभाग स्थापित करनेकी कितनी अधिक ज़रूरत है, इसका अनुभव सहृदय पाठक स्वयं कर सकते हैं। प्राचीन प्रतियाँ दिनपर दिन नष्ट होती जाती हैं। उनसे शीघ्र स्थायी काम ले लेना चाहिए। नहीं तो उनके नष्ट हो जानेपर यथार्थ वस्तुस्थितिके मालूम करनेमें फिर बडी कठिनता होगी और अनेक प्रकारकी दिक्कतें पैदा हो जायँगी । कमसे कम उन खास खास अन्थोंकी जाँच तो जरूर हो जानी चाहिए जो बडे बडे प्राचीन आचार्योंके बनाये हुए हैं अथवा ऐसे आचार्योंके नामसे नामांकित हैं और इसलिये उनमें उसी नामके प्राचीन आचार्योंके बनाए हुए होनेका भ्रम उत्पन्न होता है । आशा हैं, हमारे दूरदशी भाई इस विषयकी उपयोगिताको समझकर उसपर जरूर ध्यान देनेकी कृपा करेंगे। : सरसावा, जि. सहारनपुर । जुगलकिशोर मुख्तार ता. २५ नवम्बर सन् १९२१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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