Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 276
________________ २६२ अनन्तर नं० ७१ का पद्य, नं० ७८ वाले पद्यसे पहले नं० ७९ का पद्य और नं० ९२ के लोकके अनन्तर उसी प्रतिका अन्तिम श्लोक नं० ९६ दिया है। इसी तरह ९० नम्बरके पद्यके अनन्तर उसी प्रतिके ९४ और ९५ नम्बरवाले पद्य क्रमशः दिये हैं । इस क्रमभेदके सिवाय, दोनों प्रतियों के किसी किसी श्लोक में परस्पर कुछ पाठभेद भी उपलब्ध हुआ; परन्तु वह कुछ विशेष महत्व नहीं रखता, इसलिये उसे यहाँ पर छोड़ा जाता है । , देहली की इस प्रतिसे संदेहकी कोई विशेष निवृत्ति न हो सकी, बल्कि कितने ही अंशों में उसे और भी ज्यादा पुष्टि मिली और इसलिये ग्रन्थकी दूसरी हस्त लिखित प्रति - योंके देखनेकी इच्छा बनी ही रही । कितने ही भंडारोंको देखनेका अवसर मिला और कितनेही भंडारोंकी सूचियाँ भी नज़र से गुजरीं, परन्तु उनमें मुझे इस ग्रन्थका दर्शन नहीं हुआ । अन्तको पिछले साल जब मैं 'जैन सिद्धान्तभवन ' का निरीक्षण करनेके लिये आरा गया और वहाँ करीब दो महीनेके ठहरना हुआ, तो उस वक्त भवनसे मुझे इस ग्रन्थकी दो पुरानी प्रतियाँ कनडी अक्षरों में लिखी हुई उपलब्ध हुई - एक ताडपत्रोंपर और दूसरी कागजपर। इन प्रतियों के साथ छपी हुई प्रतिका जो मिलान किया गया तो उससे मालूम हुआ कि इन दोनों प्रतियों में छपी हुई प्रतिके वे छह श्लोक नहीं हैं जो देहलीवाली प्रतिमें भी नहीं हैं, और न वे दस श्लोक ही हैं जो देहली की प्रतिमें छपी हुई प्रतिसे अधिक पाए गये हैं और जिन सबका ऊपर उल्लेख किया जा चुका हैं। इसके सिवाय, इन प्रतियों में छपी हुई प्रतिके नीचे लिखे हुए पन्द्रह श्लोक भी नहीं हैं क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा च मृत्युश्च स्वेदः खेदो मदोरतिः ॥ ४ ॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रुवः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ॥ ५ ॥ एतैर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरंजनः । विद्यन्ते येषु ते नित्यं तेऽत्र संसारिणः स्मृताः ॥ ६ ॥ स्वतत्वपरतत्वेषु हेयोपादेयनिश्चयः । संशयादिविनिर्मुक्तः स सम्यग्दृष्टिरुच्यते ॥ ९ ॥ रक्तमात्रप्रवाहेण स्त्री निन्द्या जायते स्फुटम् । द्विधातुजं पुनर्मासं पवित्रं जायते कथम् ॥ १९ ॥ अक्षरैर्न विना शब्दास्तेऽपि ज्ञानप्रकाशकाः । तद्रक्षार्थं च षट् स्थाने मौनं श्रीजिनभाषितम् ॥ ४१ ॥ दिव्यदेहप्रभावतः सप्तधातुविवर्जिताः । गर्भोत्पत्तिर्न तत्रास्ति दिव्यदेहास्ततोमताः ॥ ५७ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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