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पय बढ़े हुए है उन्हें या तो किसी विद्वान्ने व्याख्या आदिके लिये अपनी प्रतिमें टिप्पणीके तौरपर लिख रक्सा था या प्रन्यकी किसी कानडी आदि टीकामें वे विषयसमर्थानादिके लिये 'उकंच' आदि रूपसे दिये हुए थे और ऐसी किसी प्रतिसे नकल करते हुए लेखकोंने उन्हें मूल ग्रन्यका ही एक अंग समझकर नकल कर डाला है। ऐसे ही किसी कारणसे ये सब श्लोक अनेक प्रतियोंमें प्रक्षिप्त हुए जान पड़ते हैं । और इसलिये यह कहने में कोई संकोच नहीं हो सकता कि ये बढ़े हुए पद्य दूसरे अनेक ग्रन्योंके पद्य है। नमनेके तौर पर यहाँ चार पद्योंको उद्धृत करके बतलाया जाता है कि वे कौन बौनसे अन्यके पथ हैं:
गोपुच्छिकश्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः।
निपिच्छेधति पंचैते जैनामासाः प्रकीर्तिताः ॥१०॥ यह पद्य इन्द्रनन्दिके 'नीतिसार" ग्रन्थका पद्य है और उसमें भी नं० १० पर दिया हुआ है।
सजातिः सद्ग्रहस्थत्वं पारिवाज्यं सुरेंदता ।
साम्राज्यं परमाईन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा ॥ ५६ ॥ यह पद्य, जो देहलीवाली प्रतिमें पाया जाता है, श्रीजिनसेनाचार्यके 'आदिपुराण'का पद्य है और इसका यहाँ पूर्वापरपद्योंके साथ कुछ भी मेल मालूम नहीं होता।
मातस्यासविधानेऽपि पुण्यायाकृतिपूजनम् ।
तार्शमुद्रा न किं कुर्युर्विषसामर्थ्य सूदनम् ॥ ७३ ॥ यह श्रीसोमदेवसूरिके 'यशस्तिलक' ग्रंथका पद्य है और उसके आठवें आश्वासमें पाया जाता है।
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शास्वतः ।
नित्यं सनिहितोमृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥ ९५ ॥ यह 'चाणक्य नीति 'का श्लोक है।
टीका-टिप्पणियोंके लोक किस प्रकारसे मूल प्रन्यमें शामिल हो जाते हैं, इसका विशेष परिचय पाठकोंको 'रलकरंडकावकाचारकी जाँच ' नामके लेखद्वारा कराया जायगा।
यहां तकके इस सब कयनसे यह बात बिलकुल साफ हो जाती है कि छपी हुई प्रतिको देखकर उसके पद्योंपर जो कुछ संदेह उत्पन्न हुआ था वह अनुचित नहीं था बल्कि यथार्य ही था, और उसका निरसन आराकी प्रतियों परसे बहुत कुछ हो जाता है। साथ ही, यह बात थानमें भा जाती है कि यह प्रन्य जिस रूपसे छपी हुई प्रतिमें तथा दोलीवाली प्रतिमें पाया जाता है उस रूपमें वह पूज्यपादका 'उपासकाचार'
*माणिकचंद्रग्रंथमाला में प्रकाशित 'रत्नकरण्डश्रावकाचार ' पर जो ठोंकी विस्तत प्रस्तावना लिखी गई है उसीमें रत्नकरण्डक धा• की यह सब जाँच शामिल है।
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