Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 273
________________ २५९ उल्लेख नहीं मिलता । प्रत्युत, अकलंक प्रतिष्ठापाठके बहुतसे पद्यों और कथनोंका समावेश उसमें बरूर पाया जाता है। ऐसी हालतमें, सोमसेन त्रिपर्णाचार में 'अकलंक -प्रतिष्ठापाठ का उल्लेख किया गया है, यह कहना समुचित प्रतीत होता है । सोमसेनत्रिवणीचार वि● सं० १६६५ में बनकर समाप्त हुआ है और अकलंकप्रतिष्ठापाठका उसमें उल्लेख है । इस लिए अकलंक - प्रतिष्ठापाठ वि० सं० १६६५ से पहले बन चुका था, इस कहने में भी कोई संकोच नहीं होता । नतीजा इस संपूर्ण कथनका यह है कि विवादस्थ प्रतिष्ठापाठ राजवार्तिकके कर्ता भट्टाकलंकदेवका बनाया हुआ नहीं है और न विक्रमकी १६ वीं शताब्दी से पहलेका ही बना हुआ है। बल्कि उसकी रचना विक्रमकी १६ वीं शताब्दी या १७ वीं शताब्दीके प्रायः पूर्वार्ध में हुई है । अथवा यों कहिए कि वह वि० सं० १५०१ और १६६५ के मध्यवर्ती किसी समयका बना हुआ है । अब रही यह बात कि, जब यह ग्रन्थ राजवार्तिकके कर्ता भट्ठाकलंकदेवका बनाया हुआ नहीं है और न ' मट्टाकलंकदेव' नामका कोई दूसरा विद्वान् जैनसमाजमें प्रसिद्ध है, तब इसे किसने बनाया है ? इसका उत्तर इस समय सिर्फ इतना ही हो सकता है कि, या तो यह प्रन्थ ' अकलंक' या ' अकलंकदेव' नामके किसी ऐसे अप्रसिद्ध भट्टारक या दूसरे विद्वान् महाशयका बनाया हुआ है जो उपर्युक्त समयके भीतर हुए हैं और जिन्होंने अपने नामके साथ स्वयं ही 'मह' की महत्त्वसूचक उपाधिको लगाना पसंद किया है * । अथवा इसका निर्माण किसी ऐसे व्यक्तिने किया है जो इस प्रन्यके द्वारा अपने किसी क्रियाकांड या मंतव्यके समर्थनादिरूप कोई इष्ट प्रयोजन सिद्ध करना चाहता हो और इस लिए उसने स्वयं ही इस ग्रन्थको बनाकर उसे भट्टाकलंकदेवके नामसे प्रसिद्ध किया * बादको 'हिस्ट्री ऑफ कनडीज़ लिटरेचर ' ( कनडी साहित्यका इतिहास ) से माथुम हुआ कि इस समयके भीतर 'भट्टाकलंकदेव' नामके एक दूसरे विद्वान् हुए हैं जो दक्षिणकनाडामें हाइवनिमटके अधिपति भारकके शिष्य थे और जिन्होंने विक्रमकी १७ वीं शताब्दी में ( ई० स० १६०४ में ) कनडीभाषाका एक बडा व्याकरण संस्कृतमें लिखा है, जिसका नाम है 'कर्णाटकशब्दानुशासनम् ' और जिसपर संस्कृतकी एक विस्तृत टीकामी आपकी ही लिखी हुई है। हो सकता है कि यह प्रविष्ठापाठ आपकी ही रचना हो । परंतु फिर भी इसमें मंगलाचरणका दूसरे प्रन्यसे उठाकर रक्खा जाना कुछ खटकता जरूर है; क्यों कि आप संस्कृतके अच्छे विद्वान कहे जाते है। यदि आपका उक्त शब्दानुशासन मुझे देखनेके लिये मिल सकता तो इस विषयका कितना ही संदेह दूर हो सकता था । लेखक । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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