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पर द्रोपदी के पंचपति होनेका निषेध किया है। वे दोनों पद्य इस प्रकार हैं:सम्बंधा भुवि विद्यन्ते सर्वे सर्वस्य भूरिशः । भर्तृणां कापि पंचानां नैकया भार्यया पुनः ॥ ४८ ॥ सर्वे सर्वेषु कुर्वन्ति संविभागं महाधियः । महिलांसंविभागस्तु निन्द्यानामपि निन्दितः ॥४६॥
पद्मसागर जीने यद्यपि इन पद्यों से पहले और पीछे के बहुत से पद्यों की एकदम ज्योंकी त्यों नकल कर डाली है, तो भी आपने इन दोनों पयोंको अपनी धर्मपरीक्षा में स्थान नहीं दिया | क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में, हिन्दुओं की तरह, द्रौपदीके पंचभर्त्तार ही माने जाते हैं। पाँचों पांडवों के गले में द्रौपदीने वरमाला डाली थी और उन्हें अपना पति बनाया था, ऐसा कथन श्वेताम्बरोंके 'त्रिशष्ठिशलाका पुरुषचरित' आदि अनेक ग्रंथों में पाया जाता है । उक्त दोनों पयोंको स्थान देनेसे यह ग्रंथ कहीं श्वेताम्बर. धर्म के अहाते से बाहर न निकल जाय, इसी भय से शायद गणीजी महाराजने उन्हें स्थान देनेका सांइस नहीं किया । परन्तु पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि गणोजीने अपने ग्रंथमें उस श्लोकको ज्योंका त्यों रहने दिया है जो भाक्षेपके रूपमें ब्राह्मणों के सम्मुख उपस्थित किया गया था और जिसका प्रतिवाद करने के लिए ही अमितगति आचार्यको उक्त दोनों पद्योंके लिखने की जरूरत पड़ी थी। वह श्लोक यह है :
द्रौपद्याः पंच भर्तारः कथ्यन्ते यत्र पाण्डवाः । जनन्यास्तव को दोषस्तत्र भर्तृद्वये सति ॥ ६७६ ॥
इस श्लोक में द्रौपदी के पंचभर्त्तार होने की बात कटाक्ष रूपसे कही गई. है । जिसका आगे प्रतिवाद होने की ज़रूरत थी और जिसे गणीजीने नहीं किया । यदि गणीजीको एक स्त्रीके अनेक पति होना अनिष्ट न था तब आपको अपने ग्रंथमें यह श्लोक भी रखना उचित न था और न इस विषयकी कोई चर्चा ही चलाने की ज़रूरत थी । परन्तु आपने ऐसा न करके अपनी
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