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बने श्रीवर्षमानस्वामीको श्मशानभूमिमें ध्यानारूढ देखकर और उन्हें विद्यारूपी मनुष्य समझकर उन पर उपद्रव किया। प्रातःकाल जब उसे यह मालूम हुआ कि वे श्रीवर्ष। मान जिनेंद्र थे तब उसे अपनी कृति पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। उसने भगवानकी स्तुति की और उनके चरण हुए। चरणोंको छूते ही उसके हायसे चिपटा हुआ वह गधेका सिर गिर पड़ा।'
यह सब कथन श्वेताम्बर शास्त्रोंके बिलकुल विरुद्ध है। श्वेताम्बरोंके 'आवश्यक' सूत्रमें महादेवकी जो कथा लिखी है और जिसको मुनि वात्मारामजीने अपने 'तत्त्वादर्श' मामक ग्रंबके १२३ परिच्छेदमें उद्धृत किया है उससे यह सब कथन बिलकुल ही विक्षण मालम होता है। उसमें महादेव ( महेश्वर ) के पिताका नाम 'सात्यकि 'न बतलाकर स्वयं महादेवका ही असली नाम 'सात्यकि ' प्रगट किया है और पिताका नाम 'पेढाल ' परिव्राजक बतलाया है। लिखा है कि, 'पेढालने अपनी विद्याओंका दान करनेके लिए किसी ब्रह्मचारिणीसे एक पुत्र उत्पन्न करनेकी जरूरत समझकर 'ज्येष्ठा' नामकी साध्वीसे व्यभिचार किया और उससे सात्यकि नामके महादेव पुत्रको उत्पन्न करके उसे अपनी संपूर्ण विद्याओंका दान कर दिया। साथ ही, यह भी लिखा है कि 'वह सात्यकि नामका महेश्वर महावीर भगवानका अविरतसम्यग्दृष्टि श्रावक था। इस लिए उसने किसी चारित्रका पालन किया, मुनिदीक्षा ली, घोर तपश्चरण किया और उससे भ्रष्ट हुआ, इत्यादि बातोंका उसके साथ कोई सम्बंध ही नहीं है । महादेवने विद्या. घरोंकी आठ कन्याओंसे विवाह किया, वे मर गई, तब पार्वतीसे विवाह किया, पार्वतीसे भोग करते समय त्रिशूल विद्या नष्ट हो गई, उसके स्थानमें ब्राह्मणी विद्याको सिद्ध करनेकी चेष्टा की गई, विद्याकी विकिया, गधेके सिरका हायके चिपट जाना और फिर उसका वर्षमान स्वामीके चरण छूने पर छूटना, इन सब बातोंका भी वहां कोई उल्लेख नहीं है। इनके स्थानमें लिखा है कि 'महादेव बड़ा कामी और व्यभिचारी था, वह अपनी विद्याके बलसे जिस किसीकी कन्या या खीसे चाहता था विषय सेवन कर लेता था, लोग उसकी विद्याके भयसे कुछ बोल नहीं सकते थे, जो कोई बोलता था उसे वह मार डालता था,' इत्यादि । अन्तमें यह भी लिखा है कि 'उमा (पार्वती) एक वेश्या बी, महादेव उस पर मोहित होकर उसीके घर रहने लगा था। और · चंद्रप्रद्योत' नामके राजाने, उमासे मिलकर और उसके द्वारा यह भेद मालूम करके कि मोग करते समय महादेवकी समस्त विद्याएँ उससे अलग हो जाती है, महादेवको उमासहित भोगममावस्थामें अपने मुमटों द्वारा मरवा गला था और इस तरह पर नगरका उपद्रव दर किया था। इसके बाद महादेवकी उसी मोगावस्थाकी पूजा प्रचलित होनेका कारण बतलाया है। इससे पाठक मठे प्रकार समझ सकते है कि पद्मसागरजी गणीका उपर्युक कथन श्वेताम्बर शानोंके इस कयनसे कितना विलक्षण और विमिन है और वे कहाँ तकास धर्मपरीक्षाको श्वेताम्मरत्वका रूप देने में समर्थ हो सके हैं । गणीजीने विना सोचे समझे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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