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इन पद्योंमें लिखा है कि ' जो देव इन क्षुधादिक दोषोंसे पीडित हैं, वे दूसरोंको दु:खोंसे मुक्त कैसे कर सकते हैं ? क्योंकि हाथियोंको मारनेवाले सिंहोंको मृगोंके मारने में कुछ भी कष्ट नहीं होता । जिस प्रकार पुद्गल द्रव्यमें स्पर्श, रस और गंधादिक गुण हमेशा पाए जाते हैं, उसी प्रकार ये सब दोष भी रागी देवोंमें पाए जाते हैं t ' इसके बाद एक पद्यमें ब्रह्मादिक देवताओं पर कुछ आक्षेप करके गणीजी लिखते हैं कि सूर्यसे अंधकारके समूहकी तरह जिस देवतासे ये संपूर्ण दोष नष्ट हो गये हैं वही सब देवोंका अधिपति अर्थात् देवाधिदेव है और संसारी जीवोंके पापोंका नाश करनेमें समर्थ है । ' यथा:
एते नष्टा यतो दोषा भानोरिव तमश्चयाः ।
स स्वामी सर्वदेवानां पापनिर्दलमक्षमः ॥ ९९८ ॥
इस प्रकार गणीजी महाराजने देवाधिदेव अर्हन्त भगवान्का १८ दोषोंसे रहित वह स्वरूप प्रतिपादन किया है जो दिगम्बरसम्प्रदायमें माना जाता है । परंतु यह स्वरूप श्वेताम्बरसम्प्रदाय के स्वरूपसे विलक्षण मालूम होता है, क्योंकि श्वेताम्बरोंके यहाँ प्रायः दूसरे ही प्रकारके १८ दोष माने गये हैं। जैसा कि मुनि आत्मारामजीके ' तत्त्वादर्श' में उल्लिखित नीचे लिखे दो पद्योंसे प्रगट है:
अंतरायदानलाभवीर्य भोगोपभोगगाः ।
हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥ १ ॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा च विरतिस्तथा । रागो द्वेषश्च नो दोषास्तेषामष्टादशाऽप्यमी ॥ २ ॥
इन पद्योंमें दिये हुए १८ दोषोंके नामोंमेंसे रति, भीति ( भय ), निद्रा, राग और द्वेष ये पाँच दोष तो ऐसे हैं जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान रूपसे माने गये हैं । शेष दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, हास्य, अरति, जुगुप्सा, शोक, काम, मिथ्यात्व, अज्ञान और विरति नाम के १३ दोष दिगम्बरों के माने हुए क्षुधा, तृषा, मोह, मद, रोग, चिन्ता, जन्म, जरा, मृत्यु, विषाद, विस्मय, खेद और स्वेद नामके दोषों से भिन्न हैं । इस लिए गणीजीका उपर्युक्त कथन श्वेताम्बरशास्त्रोंके विरुद्ध है । मालुम होता है कि अमितगतिधर्मपरीक्षाके १३ वें परिच्छेदसे इन सब पद्यको ज्योंका त्यों उठाकर रखनेकी धुनमें आपको इस विरुद्धताका कुछ भी मान नहीं हुआ।
(६) एक स्थानपर, पद्मसागरजी लिखते हैं कि 'कुन्तीसे उत्पन्न हुए पुत्र तपश्चरण करके मोक्ष गये और मद्रीके दोनों पुत्र मोक्षमें न जाकर सर्वार्थसिद्धिको गये ' । यथा:कुन्तीशरीरजाः कृत्वा तपो जग्मुः शिवास्पदम् । मद्रीशरीरजौ भन्यौ सर्वार्थसिद्धिमीयतुः ॥ १०९५ ॥
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