________________
२५२
और साम्प्रदायिक मोहमुग्धताका एक अच्छा नमूना जान पड़ती है और इससे आपकी श्रद्धाका बहुत कुछ पता लग जाता है। इस लिये दूसरी बात ही प्रायः सत्य मालूम होती है। श्वेताम्बरग्रन्थोंसे अच्छी जानकारी न होनेके कारण ही आपको यह मालूम नहीं हो सका कि उपर्युक्त कथन तथा इन्हींके सदृश और दूसरे अनेक कथन भी श्वेताम्बर सम्प्रदायके विरुद्ध हैं; और इस लिए आप उनको निकाल नहीं सके । जहाँ तक मैं समझता हूँ पद्मसागरजीकी योग्यता और उनका शास्त्रीय ज्ञान बहुत साधारण था। वे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें अपने आपको विद्वान् प्रसिद्ध करना चाहते थे; और इस लिए उन्होंने एक दूसरे विद्वान्की कृतिको अपनी कृति बनाकर उसे भोले समाजमें प्रचलित किया है। नहीं तो, एक अच्छे विद्वान्की ऐसे जघन्याचरणमें कभी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । उसके लिए ऐसा करना बड़े ही कलंक और शर्मकी बात होता है । पद्मसागरजीने, यद्यपि, यह पूरा ही ग्रन्थ चुरानेका साहस किया है और इस लिए आप पर कविकी यह उक्ति बहुत ठीक घटित होती है कि 'अखिलप्रबंधं हत्रे साहसकर्त्रे नमस्तुभ्यं'; परंतु तो भी आप, शर्मको उतारकर अपने मुँह पर हाथ फेरते हुए, बड़े अभिमानके साथ लिखते हैं कि:
गणेशनिर्मितां धर्मपरीक्षां कर्तुमिच्छति । मादृशोऽपि जनस्तत्र चित्रं तत्कुलसंभवात् ॥४॥ यस्तरुर्भज्यते हस्तिवरेण स कथं पुनः। कलभेनेति नाशंक्यं तत्कुलीनत्वशक्तितः॥५॥ चक्रे श्रीमत्प्रवचनपरीक्षा धर्मसागरैः।।
वाचकेन्द्रस्ततस्तेषां शिष्येणैषा विधीयते ॥६॥ अर्थात्-गणधरदेवकी निर्माण की हुई धर्मपरीक्षाको मुझ जैसा मनुष्य भी यदि बनानेकी इच्छा करता है तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योंकि मैं भी उसी कुलमें उत्पन्न हुआ हूँ। जिस वृक्षको एक गजराज तोड़ डालता है उसे हाथीका बच्चा कैसे तोड़ डालेगा, यह आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि स्वकीय कुलशक्तिसे वह भी उसे तोड़ डाल सकता है । मेरे गुरु धर्मसागरजी वाचकेन्द्रने 'प्रवचनपरीक्षा' नामका ग्रन्थ बनाया है और मैं उनका शिष्य यह 'धर्मपरीक्षा' नामका पँथ रचता है। इस प्रकार पद्मसागरजीने बड़े अहंकारके साथ अपना ग्रंथकर्तृत्व प्रगट किया है। परन्तु आपकी इस कृतिको देखते हुए कहना पड़ता है कि आपका यह कोरा और थोथा अहंकार विद्वानोंकी दृष्टिमे केवल हास्यास्पद होनेके सिवाय और कुछ भी नहीं है। यहाँ पाठकोंपर अमितगतिका वह पद्य भी प्रगट किया जाता है, जिसको बदलकर ही गणीजीने ऊपरके दो श्लोक (नं० ४-५) बनाए हैं:
धर्मो गणेशेन परीक्षितो यः कथं परीक्षेतमहं जडात्मा।
शको हि यं भकुमिमाधिराजा स भज्यते किं शशकेन वृक्षः ॥ १५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com