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यह कथन यद्यपि दिगम्बरसम्प्रदायकी दृष्टिसे सत्य है और इसी लिए अमितगतिने अपने प्रथके १५ वें परिच्छेदमें इसे नं० ५५ पर दिया है। परन्तु श्वेताम्बरसम्प्रदायकी दृष्टिसे यह कथन भी विरुद्ध है। श्वेताम्बरोंके 'पांडवचरित्र' आदि ग्रंथोंमें 'मद्री के पुत्रोंका भी मोक्ष जाना लिखा है और इस तरह पर पाँचों ही पाण्डवोंके लिए मुक्तिका विधान किया है। (७) पद्मसागरजीने, अपनी धर्मपरीक्षामें, एक स्थान पर यह पद्य दिया है:
चार्वाकदर्शनं कृत्वा भूपौ शुक्रवृहस्पती।
प्रवृत्तौ स्वेच्छया कर्तुं स्वकीयेन्द्रियपोषणम् ॥ १३६५ ॥ इसमें शुक्र और बृहस्पति नामके दो राजाओंको 'चार्वाक' दर्शनका चलानेवाला लिखा है, परन्तु मुनि आत्मारामजीने, अपने 'तत्त्वादर्श' ग्रंथके ४ थे परिच्छेदमें, 'शीलतरंगिणी' नामक किसी श्वेताम्बरशास्त्रके आधार पर, चार्वाक मतकी उत्पत्तिविषयक जो कथा दी है उससे यह मालूम होता है कि चार्वाक मत किसी राजा या क्षत्रिय पुरुषके द्वारा न चलाया जाकर केवल बृहस्पति नामके एक ब्राह्मणद्वारा प्रवर्तित हुआ है, जो अपनी बालविधवा बहनसे भोग करना चाहता था। और इस लिए बहनके हृदयसे पाप तथा लोकलज्जाका भय निकालकर अपनी इच्छा पूर्तिकी गरजसे ही उसने इस मतके सिद्धान्तोंकी रचना की थी। इस कथनसे पद्मसागरजीका उपर्युक्त कथन भी श्वेताम्बर शास्त्रोंके विरुद्ध पड़ता है।
(८) इस श्वेताम्बर 'धर्मपरीक्षा' में, पद्य नं० ७८२ से ७९९ तक, गधेके विरच्छेदका इतिहास बतलाते हुए, लिखा है कि
'ज्येष्ठाके गर्भसे उत्पन्न हुआ शंभु ( महादेव ) सात्यकिका बेटा था। घोर तपश्चरण करके उसने बहुतसी विद्याओंका स्वामित्व प्राप्त किया था। विद्याओंके वैभवको देखकर वह दसवें वर्षमें भ्रष्ट हो गया। उसने चारित्र (मुनिधर्म ) को छोड़कर विद्याधरोंकी आठ कन्याओंसे विवाह किया। परन्तु वे विद्याधरोंकी आठों ही पुत्रियाँ महादेवके साथ रतिकर्म करनेमें समर्थ न हो सकी और मर गई । तब महादेवने पार्वतीको रतिकर्ममें समर्थ समझकर उसकी याचना की और उसके साथ विवाह किया। एक दिन पार्वतीके साथ भोग करते हुए उसकी 'त्रिशूल' विद्या नष्ट हो गई। उसके नष्ट होनेपर वह 'ब्राह्मणी' नामकी दूसरी विद्याको सिद्ध करने लगा। जब वह ' ब्राह्मणी' विद्याकी प्रतिमाको सामने रखकर जप कर रहा था तब उस विद्याने अनेक प्रकारकी विक्रिया करनी शुरू की । उस विक्रियाके समय जब महादेवने एक बार उस प्रतिमा पर दृष्टि डाली तो उसे प्रतिमाके स्थान पर एक चतुर्मुखी मनुष्य दिखलाई पड़ा, जिसके मस्तक पर गधेका सिर था। उस गधेके सिरको बढता हुआ देखकर उसने शीघ्रताके साथ उसे काट डाला। परन्तु वह सिर महादेवके हाथको चिपट गया, नीचे नहीं गिरा। तब ब्राह्मणी विद्या महादेवकी साधनाको व्यर्थ करके चली गई। इसके बाद रात्रिको महादे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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