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[२३५] ने उनपर आक्रमण नहीं किया उसी प्रकार शायद पार्षवाक्यों की अवहेलना का कुछ खयाल करके उन जैन विद्वानों ने जिनके परिचय में यह ग्रंथ अबतक आता रहा है इसका जैसा चाहिये वैसा विरोध नहीं किया । परंतु आर्षवाक्य और आर्षवाक्यों के अनुकूल कहेगये दूसरे प्रतिष्ठित विद्वानों के वाक्य अपने अपने स्थान पर माननीय तथा पूजनीय हैं; मट्टारकजी ने उन्हें यहाँ जैनधर्म, जैनसिद्धान्त, जैन नीति तथा जैन शिष्टाचार आदि से विरोध रखने वाले और जैनादर्श से गिरे हुए कथनों के साथ में गय कर अथवा मिलाकर उनका दुरुपयोग किया है और इस तरह पर समूचे ग्रंथ को विषमिश्रित भोजन के समान बना दिया है, जो त्याग किये जाने के योग्य है । विषमिश्रित भोजन का विरोध जिस प्रकार भोजन का विरोध नहीं कहलाता उसी तरह पर इस त्रिवर्णाचार के विरोध को भी आर्षवाक्यों अथवा जैनशास्त्रों का विरोध या उनकी कोई अवहेलना नहीं कहा जा सकता ।जो लोग भ्रमवश अभीतक इस ग्रंथ को किसी और ही रूप में देख रहे थे--जैन शास्त्र के नाम की मुहर लगी होने से इसे साक्षात् जिनवाणी अथवा जिनवाणी के तुल्य समझ रहे थे और इसलिये इसकी प्रकट विरोधी बातों के लिये भी अपनी समझ में न आने वाले अविरोध की कल्पनाएँ करके शान्त होते थे- उन्हें अपने उस अज्ञान पर अब जरूर खेद होगा, वे भविष्य में बहुत कुछ सतर्क तथा सावधान हो जायेंगे और याही इन त्रिवर्णाचार जैसे भट्टारकीय ग्रंथों के आगे सिर नहीं मुकाएँगे। वास्तव में, यह सब ऐसे ग्रंथों का ही प्रताप है जो जैनसमाज भरने पादर्श से गिरकर बिलकुल ही अनुदार, अन्धश्रद्धालु तथा संकीर्णहृदय बनगया है, उसमें अनेक प्रकार के मिथ्यात्वादि कुसंस्कारों ने अपना घर बना लिया है और वह बुरी तरह से कुरीतियों के जाल में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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