________________
[८१] स्वे [३] च्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च । गान्धर्वः स तु विशेयो मैथुन्यः कामसंभवः ॥ ७६ ॥ हत्वा भित्वा च छित्वा च क्रोशन्ती रुदती गृहात् । प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते ॥ ७७ ।। सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति । स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचः कथितोऽष्टमः [चाष्टमोऽधमः ॥७॥
विवाहभेद का यह सब वर्णन आदिपुराण सम्गत नहीं है-उससे नहीं लिया गया—किन्तु हिन्दुओं के प्रसिद्ध ग्रंथ ' मनुस्मृति ' से उठाकर रक्खा गया है । मनुस्मृति के तीसरे अध्याय में ये सब श्लोक, बैकिटों में दिये हुए पाठभेद के साथ, क्रमशः नं० २१ तथा नं० २७ से ३४ तक दर्ज हैं * | और इनमें 'ऋत्विजे' की जगह 'जि. नार्चा' तथा 'गोमिथुनं ' की जगह ' वस्त्रयुगं' जैसे पाठभेद भट्टारकजी के किये हुए जान पड़ते हैं।
४-इस विवाह क्रिया में भट्टारकजी ने ' देवपूजन' का जो विधान किया है वह आदिपुराण से बड़ा ही विलक्षण जान पड़ता है। आदिपुराण में इस अवसर के लिये खास तौर पर सिद्धों का पूजन रक्खा है--जो प्रायः गार्हपत्यादि अग्निकुण्डों में सप्त पीठिका मंत्रों द्वारा किया जाता है--और किसी पुण्याश्रम में सिद्ध प्रतिमा के सन्मुख वर और कन्या का पाणिग्रहणोत्सव करने की आज्ञा की है । यथा:--
सिद्धार्चनविधि सम्यमिवर्त्य द्विजसत्तमः । कृताग्नित्रयसंपूजाः कुर्युस्तत्साक्षि तां क्रियाम् ॥ ३८-१२६॥ पुण्याभमे कचित्सिद्धप्रतिमाभिमुखं तयोः ! दम्पत्योः परया भूत्या कार्यः पाणिग्रहोत्सवः॥-१३० ॥
* देखो 'मनुस्मृति' निर्णयसागर प्रेस बम्बई द्वारा सन् १६०६ की छपी हुई। अन्यत्र भी इसी एडीशन का हवाला दिया गया है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com