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[८२] परंतु भट्टारकजी ने सिद्धपूजनादि की ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की । आपने व्यवस्था की है जलदेवताओं की गंध, अक्षत, पुष्प तथा फलों से पूजा करने की, घर में वेदी बन! कर उसमें गृहदेवता+ की स्थापना करने तथा दीपक जलाने आदि रूप से उसकी पूजा करने की, पंचमंडल और नवग्रह देवताओं के पूजन की, अघोरमंत्र से होम करने की और नागदेवताओं को बलि देने आदि की; जैसा कि आपके निम्न वाक्यों से प्रकट है--
"फलगन्धाक्षतैः पुष्पैः सम्पूज्य जलदेवताः।" (६१) " वेद्यां गृहाधिदेवं संस्थाप्य दीप प्रज्वालयेत् ।" (६३) " पुण्याहवाचनां पश्चात्पञ्चमण्डल पूजनम् । नवानां देवतानों च पूजनं च यथाविधि ॥ १३३ ॥ तथैवाऽधोरमंत्रण होमश्च समिधाहुतिम् ।
लाजाहुर्ति वधूहस्तद्वयेन च वरेण च" ॥ १३४ ॥ "शुभे मंडो दक्षिणीकृत्य तं वै प्रदायाशु नागस्य साक्षाद्वलिं
च।" ( १६४) इससे साफ जाहिर है कि त्रिवर्णाचार का यह पूजन-विधान आदिपुराण-सम्मत नहीं किन्तु भगवज्जिनसेन के विरुद्ध है । रही मंत्रों की बात, उनका प्रायः वही हाल है जो पहले लिखा जा चुका हैआदिपुराण के अनुसार उनकी कोई व्यवस्था नहीं की गई । हाँ, पाठकों
+ सोनीजी ने 'गृहाधिदेव' को “ कुल देवता" समझा है परन्तु यह उनकी भूल है; क्योंकि भट्टारकजी ने चौथे अध्याय में कुल देवता से गृहदेवता को अलग बतलाया है और उसके विश्वेश्वरी, धरणेन्द्र, श्रीदेवी तथा कुबेर ऐसे चार भेद किये हैं । यथा
विश्वेश्वरीधराधीशश्रीदेवीधनदास्तथा ।
गृहलक्ष्मीकरा ज्ञेयाश्चतुर्धा वेश्मदेवताः ॥ २०५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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