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पति के विलक्षण धर्म । (१२) आठवें अध्याय में, गर्भिणी स्त्री के पति-धों का वर्णन करते हुए, भट्टारकजी लिखते हैं
पुंसो भार्या गर्भिणी यस्य चासौ सूनोश्चौलं क्षौरकर्मात्मनश्च । गेहारंभ स्तंभसंस्थापनं च वृद्धिस्थानं दूरयात्रां न कुर्यात् ॥८६॥
शवस्य वाहनं तस्य दहनं सिन्धुदर्शनम् ।
पर्वतारोहणं चैव न कुर्याद्दर्भिणीपतिः॥ ८७॥ अर्थात्-जिस पुरुष की स्त्री गर्भवती हो उसे (उस स्त्री से उत्पन्न) पुत्र का चौलकर्म नहीं करना चाहिये, स्वयं हजामत नहीं बनवानी चाहिये, नये मकान की तामीर न करनी चाहिये, कोई खंभा खड़ा न करना चाहिये, न वृद्धिस्थान बनाना चाहिये और न कहीं दूर यात्रा को ही जाना चाहिये। इसके सिवाय, वह मुर्दे को न उठाए, न उसे जलाए, न. समुद्र को देंखे और न पर्वत पर चढ़े।
पाठकगण ! देखा कैसे विलक्षण धर्म हैं !! इनमें से दूरयात्रा को न जाने जैसी बात तो कुछ समझ में आ भी सकती है परन्तु गर्भावस्था पर्यंत पति का हजामत न बनवाना, कहीं पर भी किसी नये मकान की रचना अथवा वृद्धिस्थान की स्थापना न करना, समुद्र को न देखना और पर्वत पर न चढ़ना जैसे धर्मों का गर्भ से क्या सम्बन्ध है और उनका पालन न करने से गर्भ, गर्भिणी अथवा गर्भिणी के पति को क्या हानि पहुँचती है, यह सब कुछ भी समझ में नहीं आता । इन धर्मों के अनुसार गर्भिणी के पति को आठ नौ महीने तक नख-केश बढ़ाकर रहना होगा, किसी कुटुम्बी अथवा निकट सम्बन्धी के मरजाने पर आवश्यकता होते हुए भी उसकी अरथी को कन्धा तक न लगाना होगा, वह यदि बम्बई जैसे शहर में समुद्र के किनारे-तट पर रहता है तो उसे वहाँ का अपना वासस्थान छोड़ कर अन्यत्र जाना होगा अथवा
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