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उपाय की विलक्षणता अथवा नि:सारता भादि के विषय में कुछ विशेष कहने की जरूरत नहीं है, सहृदय पाठक सहज ही में अपने अनुभव से उसे जान सकते हैं अथवा उसकी जाँच कर सकते हैं । मैं यहाँ पर सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि भट्टारकजी ने जो यह प्रतिपादन किया है कि एक जनेऊ पहन कर कोई भी धर्मकार्य सिद्ध नहीं हो सकता-उसका करना ही निष्फल होता है'
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से दरिद्र के भाग जाने अथवा पास न फटकने का विधान ! यथाः(१) आयुष्यं प्राङ्मुखो भुक्ते......श्रीकामा पश्चिमे [प्रिय प्रत्यङ्मुखो]
भुक्के ॥६-१६३ ॥ (२) एक एव तु यो भुंक्त विमले [गृहस्थः ] कांस्यभाजने ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुः प्रज्ञा यशोबलम् ॥ ६-१६७ ॥ (३) मायुष्ये [दः ] प्राङ्मुखो दीपोधनायोदङ्मुलोमतः
1 [धनदः स्यादुदङ्मुखः ] । प्रत्यङ्मुखोऽपिदुःस्वाय [दुःखदोऽसौ] हानये [निदो दक्षिणामुखः॥ रखेरस्तं समारभ्य यावत्सूर्योदयो भवेत् । यस्य तिष्ठेद्गृहे दीपस्तस्य नास्ति दरिद्रता ॥
-अध्याय, ७ वाँ। और ये सब कथन हिन्दू धर्म के अन्यों से लिये गये हैं-हिन्दुओं के (१) मनु (२) व्यास तथा ( ३) मरीचि नामक ऋषियों के क्रमशः वचन है, जो प्रायः ज्यों के त्यो अथवा कहीं कहीं साधारण से परिवर्तन के साथ उठा कर रकन्ने गये हैं । आन्हिकसूत्रावलि में भी ये वाक्य, ब्रेकिटों में दिये हुए पाठभेद के साप इन्हीं ऋषियों के नाम से उल्लेखित मिलते हैं। जैनधर्म की शिक्षा अथवा उसके तत्व.
शान से इन कथनों का कोई खास सम्बन्ध नहीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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