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[१८] करने वाले भट्टारकजी ने, उसी अध्याय में, भोग की कुछ विधि भी बत. लाई है। उसमें, अन्य बातों को छोड़ कर, आप लिखते हैं 'प्रदीपे मैथुनं चरेत् '-दीपप्रकाश में मैथुन करना चाहिये और उसकी बाबत यहाँ तक जोर देते हैं कि
दीपे नष्टे तु यः सङ्गं करोति मनुजो यदि ।
यावजन्मदरिद्रत्वं लभते नात्र संशयः ॥ ३७॥ अर्थात्-दीपप्रकाश के न होते हुए, अँधेरे में, यदि कोई मनुष्य स्त्रीप्रसङ्ग करता है तो वह जन्म भर के लिये दरिद्री हो जाता है इस में सन्दह नहीं है । इसके सिवाय, आप भोग के समय परस्पर क्रोध, रोष, भर्सना और ताड़ना करने तथा एक दूसरे की उच्छिष्ट ( जूठन ) खाने में कोई दोष नहीं बतलाते है । साथ ही, पान चबाने को भोग का आवश्यक अंग ठहराते हैं-भोग के समय दोनों का मुख ताम्बूल से पूर्ण होना चाहिये ऐसी व्यवस्था देते हैं और यहाँ तक लिखते हैं कि वह स्त्री भोग के लिये त्याज्य है जिसके मुख में पान नहीं । और इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भट्टारकजी ने उन स्त्री-पुरुषों अथवा श्रावक-श्राविकाओं को परस्पर कामसेवन का अधिकारी ही नहीं समझा mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
* सन्देह की बात तो दूर रही, यह तो प्रत्यक्ष के भी विरुद्ध मालूम होता है; क्योंकि कितने ही व्यक्ति लज्जा आदि के वश होकर या वैसे ही सोते से जाग कर अन्धेरे में काम सेवन करते हैं परन्तु वे दरिद्री नहीं देखे जाते । कितनों ही की धन-सम्पन्नता तो उसके बाद प्रारम्भ होती है।
* पादलग्नं तनुश्चैत्र एच्छिष्टं नाउनं तथा।
कोपोरोषश्च निर्भसः संयोगे न च दोष भाक् ॥ ३८ ॥ f ताम्बूलेन मुखं पूर्ण...कृत्वा योगं समाचरेत् ॥ ३६ ॥ बिना साम्बूलबदनां...संयोगे च परित्यजेत् ॥ ४० ॥
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