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[२२६] अब रही श्राद्ध और पिण्डदान की बात । ये विषय भी जैन धर्म से बाहर की चीज हैं और हिंदूधर्म से खास सम्बंध रखते हैं। भट्टारकजी ने इन्हें भी अपनाया है और अनेक स्थानों पर इनके करने की प्रेरणा तथा व्यवस्था की है * । पितरों का उद्देश्य करके दिया * जिसके कुछ नमूने इस प्रकार हैं:
तीर्थतटे प्रकर्तव्यं प्राणायाम तथाचमम् !
सन्ध्या प्राद्धं च पिण्डस्य दानं गेहेऽथवाशुचौ ॥३-७७॥ इसमें श्राद्ध तथा पिण्डदान को तीर्थतट पर या घर में किसी पवित्र स्थान पर करने की व्यवस्था की है। __ नान्दीश्राद्धं च पूजांच। सर्वकुयांच्च तस्याग्रे॥६-१६॥
इसमें 'नान्दीश्राद्ध' के करने की प्रेरणा की गई है, जो हिन्दुओं के श्राद्ध का एक विशेष है।
एकमेव पितुश्चाद्यं कुर्याद्देशे दशाहनि ।
ततो वै मातृके श्राद्धं कुर्यादाद्यादि षोडश ॥१३-७८॥ इसमें प्रवस्थाविशेष को लेकर माता और पिता के श्राद्धों का विधान किया गया है।
तदेहप्रतिबिम्बाथै मण्डपे तद्विनापि वा। स्थापयेदेकमश्मानं तीर पिण्डादिदत्तये ॥ १६६ ॥ पिएडं तिलोदकं चापि कर्ता दद्याच्छिलाग्रतः। सर्वेपि बन्धवो दधुः नातास्तत्र तिलोदकं ॥ १७० ॥ एवं दशाहपर्यन्तमेतत्कर्म विधीयते । पिण्डं तिखोदकं चापि कर्ता दद्यात्तदान्वहं । १७६ ॥ पिण्डप्रदानतः पूर्वमन्ते च स्नानमिप्यते । पिण्डः कपित्यमात्रय स च शाल्यन्धसा कृतः ॥१७७॥ तत्याकन पति कार्यस्तत्पात्रं च शिखापि च । कर्तुः संव्यानकं चापि पतिः स्थाप्यानि गोपिते ॥ १७८॥
-१३ वाँ अध्याय। इन पद्यों में मृतक संस्कार के अनन्तर धाले पिण्डदान का विधान और उसके विषय में लिखा है कि 'पिएडादिक देने के लिये जलाशय के किनारे पर उस मृतक की देह के प्रतिनिधिरूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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