________________
[२३०] हुआ अन्नादिक पितरों के पास पहुँच जाता है और उनकी तृप्ति आदि सम्पादन करता है. ऐसी श्रद्धा से शास्त्रोक्तविधि के साथ जो अन्नादिक से एक पत्थर की स्थापना करनी चाहिये, संस्कारकर्ता को उस पत्थर के आगे पिण्ड और तिलोदक देना चाहिये और स्नान किये हुए बन्धुओं को भी वहाँ पर तिलोदक चढ़ाना चाहिये। संस्कार• कर्ता को बराबर दस दिन तक इसी तरह पर पिण्ड और तिलोदक देते रहना चाहिये, पिण्डदान से पहले और पीछे भी स्नान करना चाहिये और वह पिण्ड पके चावलों का कपित्थ (कैथ या बेल ) के आकार जितना होना चाहिये । चावल भी घर से बाहर पकाये जायें और पकाने का पात्र, वह पत्थर, तथा पिण्डदान-समय पहनने के वस्त्र ये सब चीजें बाहर ही किसी गुप्त स्थान में रखनी चाहियें ।'
श्रद्धयानप्रदान तु सभ्यः श्राद्धमितीष्यते । मासे मासे भवेच्छाद्धं तद्दिने वत्सरावधि ॥ १६३॥ अत ऊर्ध्वं भवेदब्दश्राद्धं तु प्रतिवत्सरं ।।
श्राद्वादशाब्दमेवैतक्रियते प्रेतगोचरम् ॥ १६४ ।। इन पद्यों में प्रेत के उद्देश्य से किये गये श्राद्ध का स्वरूप और उसके भेदों का उल्लेख किया गया है। लिखा है कि श्रद्धा से-श्रद्धा विशेष से-किये गये अन्नदान को श्राद्ध कहते हैं और उसके दो भेद हैं १ मासिक और २ वार्षिक । जो मृतक तिथि के दिन हर महीने साल भर तक किया जाय वह मासिक श्राद्ध है और जो उसके बाद प्रतिवर्ष बारह वर्ष तक किया जाय उसे वार्षिक श्राद्ध जानना चाहिये । यहाँ श्राद्ध का जो व्युत्पत्यात्मक स्वरूप दिया है वह प्रायः वही है जो हिन्दुओं के यहाँ पाया जाता है और जिसे उनके 'श्राद्ध. तत्व' में वैदिकप्रयोगाधीनयौगिक' लिखा है, जैसा कि अगले फुट नोट से प्रकट है। और इसमें जिस श्रद्धा का उल्लेख है वह भी वही 'पित्रुद्देश्यक श्रद्धा' अथवा 'प्रेतोद्देश्यक श्रद्धा' है जिसे हिन्दुओं के पद्मपुराण में भी जैनियों की ओर से 'निरर्थिका' बतलाया है और जो जैनदृष्टि से बहुत कुछ आपत्ति के योग्य है। श्रद्धा के इस सामान्य प्रयोग की वजह से कुछ लोगों को जो भ्रम होता था वह अब दूर हो सकेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com