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[२३२] श्राद्धं कुर्वन्ति मोहेन क्षयाहे पितृतर्पणम् । काऽऽस्ते मृतः समश्नाति कीदृशाऽसौ नरोत्तम ॥ २६ ॥ किं ज्ञानं कीदृशं कार्य केन दृष्टं वदस्व नः । मिष्टमनं प्रभुत्वा तु तृप्तिं यान्ति च ब्राह्मणाः ॥ ३० ।। कस्य श्राद्ध प्रदीयेत सा तु श्रद्धा निरधिका । अन्यदेवं प्रवक्ष्यामि वेदानां कर्मदाहणम् ॥ ३१ ॥
इन वाक्यों में श्राद्ध को साफ़ तौर पर 'पितृतर्पण' लिखा है, और उससे श्राद्ध का उद्देश्य भी कितना ही स्पष्ट हो जाता है । साथ ही यह बतलाया है कि जिस ( पितृतृप्ति उद्देश्य की ) श्रद्धा से उसका विधान किया जाता है वह श्रद्धा ही निरर्थक है-उसमें कुछ सार ही नहीं-इस श्राद्धसे पितरोंकी कोई तृप्ति नहीं होती किन्तु ब्राह्मणों की तृप्ति होती है। इसी तरह पर उक्त पुराण के १३ वें अध्याय में भी दिगम्बर जैनों की ओर से श्राद्ध के निषेध का उल्लेख मिलता है।
ऐसी हालत में जैनग्रंथों से श्राद्धादि के निषेध-विषयक अवतरणों के देने की-जो बहुत कुछ दिये जा सकते हैं-यहाँ कोई ज़रूरत मालूम नहीं होती । जैनसिद्धांतों से वास्तव में इन विषयों का कोई मेल ही नहीं है । और अब तो बहुत से हिंदू भाइयों की भी श्रद्धा श्राद्ध पर से उठती जाती है और वे उसमें कुछ तत्व नहीं देखते । हाल में स्वर्गीय मगनलाल गाँधीजी के विवेकी वीरपुत्र केशव भाई ने अपने पिता की मृत्यु के १० वें दिन जो मार्मिक उद्गार महात्मा गाँधीजी पर प्रकट किये हैं और जिन्हें महात्माजी ने बहुत पसंद किया तथा कुटुम्बीजनोंने भी अपनाया वे इस विषय में बड़ा ही महत्त्व रखते हैं और उनसे कितनी है। उपयोगी शिक्षा मिलतीहै । वे उद्गार इस प्रकार हैं:
"श्राद्ध करने में मुझे श्रद्धा नहीं है । और सत्य तथा मिथ्या का आचरण कर मैं अपने पिता का तर्पण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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