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[२३१] दिया जाता है उसका नाम श्राद्ध * है । हिंदुओं के यहाँ तर्पण और श्राद्ध ये दोनों विषय करीब करीब एक ही सिद्धांत पर अवस्थित हैं । दोनों को 'पितृयज्ञ' कहते हैं । भेद सिर्फ इतना है कि तर्पण में अंजलि से जल छोड़ा जाता है, किसी ब्राह्मणादिक को पिलाया नहीं जाता । देव पितरगण उसे सीधा ग्रहण करलेते हैं और तृप्त हो जाते हैं। परंतु श्राद्ध में प्रायः ब्राह्मणों को भोजन खिलाया जाता है अथवा सूखा भन्नादिक दिया जाता है । और जिस प्रकार लैटरबॉक्स में डाली हुई चिट्टी दूर देशांतरों में पहुँच जाती है उसी प्रकार मानो ब्राह्मणों के पेट में से वह भोजन देव पितरों के पास पहुँच कर उनकी तृप्ति कर देता है । इसके सिवाय कुछ क्रियाकांड का भी भेद है। पिण्डदान भी श्राद्ध का ही एक रूपविशेष है, उसका भी उद्देश्य पितरों को तृप्त करना है और वह मी 'पितृयज्ञ' कहलाता है । इसमें पिण्ड को पृथ्वी आदिक पर डाला जाता है--किसी ब्राह्मणादिक के पेट में नहीं-और उसे प्रकट रूप में कौए आदिक खाजाते हैं। इस तरह पर श्राद्ध और पिण्डदान ये दोनों कर्म प्रक्रियादि के भेद से, पितृतर्पण के ही भेदविशेष हैं-इन्हें प्रकारांतर से 'पितृतर्पण' कहा भी जाता है और इसलिये इनके विषय में अब मुझे अधिक कुछ भी लिखने की जरूरत नहीं है। सिर्फ इतना और बतला देना चाहता हूँ कि हिंदू ग्रंथों में श्राद्ध' नाम से भी इस विषयका स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि वह जैनधर्मसम्मत नहीं है,जैसाकि उनके पद्मपुराण' के निम्न वाक्यों से प्रकट है, जो कि ३६वें अध्याय में उसी दिगम्बरसाधुद्वारा, श्राद्ध के निषेध में, राजा 'वेन' के प्रति कहे गये हैं:
आई-शास्रोतविधानेन पितृकर्म इत्यमरः। पिछद्देश्यक. भ्रद्धयाऽन्नादि दानम् । ...."घद्धया दीयते यस्मात् श्राद्धं तेन निगाते' इति पुलस्त्यवचनात् । 'भ्रद्धया अन्नादेनं श्राद्धं ' इति वैदिकप्रयोगाधीनयौगिकम्' इति श्राद्धतत्वम् । अपिच, सम्बोधनपदोगनीतान् वित्रादीन चतुर्यन्तपदेनोद्दिश्य हविस्वागः श्रादम्।-शप्दकलादुम ।
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