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इन्हीं सोनीजी ने, चतुर्थीकर्म - विषयक सारे पूर्वकथन पर पानी फेर कर १७४ में पद्य में प्रयुक्त हुए ' चतुर्थीमध्ये ' पद का अर्थ अपने उस लेख में, ' चौधी पदी ' किया है और उस पर यहाँ तक जोर दिया है कि इसका अर्थ " चौथी पदी ही करना पड़ेगा ", " चौथी पदी ही होना चाहिये " मराठी टीकाकार ने भी भूल की है" * । परंतु अपनी अनुवादपुस्तक में जो अर्थ दिया है वह इससे भिन्न है । मालूम होता है बाद में आपको पंचांगविवाह के चौथे अंग ( पाणिग्रहण ) का कुछ खयाल आया और वही चतुर्थी के सत्यार्थ पर पर्दा डालने के लिये अधिक उपयोगी जँचा है ! इसलिये आपने अपने उक्त वाक्यों और उनमें प्रयुक्त हुए ' ही ' शब्द के महत्व को भुलाकर, उसे ही चतुर्थी का वाच्य बना डाला है !! बाक़ी ' दत्ताम् ' पद का वही पलत अर्थ ' वाग्दान में दी हुई ' कायम रक्खा है, जैसा कि पूरे पद्य के आपके निम्न अनुवाद से प्रकट है:
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" पाणिपीडन नाम की चौथी क्रिया में अथवा सप्तपदी से पहले वर में जातिष्युतरूप, हीनजातिरूप या दुराचरणरूप दोष मालूम हो जायँ तो वाग्दान में दी हुई कन्या को उसका पिता किसी दूसरे श्रेष्ठ जाति श्रादि गुणयुक्त वर को देवे, ऐसा बुद्धिमानों का मत है ।"
पूर्वकचनसम्बन्ध को सामने रखते हुए, जो ऊपर दिया गया है, इस अनुवाद पर से यह मालूम नहीं होता कि सोनीजी को 'चतुर्थी कर्म' का परिचय नहीं था और इसलिये 'चतुर्थीमध्ये' तथा 'दत्ताम्' पदों का अर्थ उनके द्वारा भूल से गलत प्रस्तुत किया गया है; बल्कि यह साफ़ जाना जाता है कि उन्होंने जान बूझकर, विवाहिता स्त्रियों के
* मराठी टीकाकार पं० कल्लाप्पा भरमाया निटवे ने दिवशीचे कृत्य होण्याच्या पूर्वीच " अर्थ दिया है।
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चवथ्या
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