________________
[ २२५ ]
उन्हें इस तर्पण को जैनधर्म का सिद्धान्त सिद्ध करने के लिये कोई ठीक युक्ति सूझ नहीं पड़ती थी, इसीसे वे वैसे ही यद्वा तद्वा कुछ महकी बहकी बातें लिखकर ग्रंथ के कई पेजों को रँग गये हैं । और शायद यही वजह है जो वे दूसरों पर मूर्खतापूर्ण अनुचित कटाक्ष करने का भी दुःसाहस कर बैठे हैं, जिसकी चर्चा करना यहाँ निरर्थक जान पड़ता है ।
१८ वें श्लोक के भावार्थ में, कितनी ही विचलित बातों के अतिरिक्त, सोनीजी लिखते हैं:
" यद्यपि देवों में मानसिक आहार है, पितृगण कितने ही मुक्ति स्थान को पहुँच गये हैं इसलिये इनका पानी पीना असम्भव जान पड़ता है । इसी तरह यक्ष, गंधवों और सारे जीवों का भी शरीर के जल का पानी ( ना ?) असम्भव है, पर फिर भी ऐसा जो लिखा गया है उसमें कुछ न कुछ तात्पर्य अवश्य छुपा हुआ है (जो सोनीजी की समझ के बाहर है और जिसके जानने का उनके कथनानुसार इस समय कोई साधन भी नहीं है ! ) । " यद्यपि इस श्लोक का विषय असम्भव सा जान पड़ता है परन्तु फिर भी वह पाया जाता है । अतः इसका कुछ न कुछ तात्पर्य अवश्य है । व्यर्थ बातें भी कुछ न कुछ अपना तात्पर्य ज्ञापन कराकर सार्थक हो जाती हैं ( परन्तु इस श्लोक की व्यर्थ बातें तो सोनीजी को अपना कुछ भी तात्पर्य न बतला सकीं ! ) ।”
इन उद्द्वारों के समय सोनीजी के मस्तिष्क की हालत उस मनुष्य जैसी मालूम होती है जो घर से यह खबर आने पर रो रहा था कि तुम्हारी की विधवा हो गई है ' और जब लोगों ने उसे समझाया कि तुम्हारे जीते तुम्हारी खी विधवा कैसे हो सकती है तब उसने सिसक्रियाँ लेते हुए कहा था कि 'यह तो मैं भी जनता हूँ कि मेरे जीते मेरी स्त्री त्रिववा कैसे हो सकती है परन्तु घर से जो आदमी खबर लाया है वह बड़ा ही विश्वासपात्र है, उसकी बात को झूठ कैसे कहा जा सकता
२६
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
46
www.umaragyanbhandar.com