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[२१.] .इसी तरह पर १७५ वें पद्य में प्रयुक्त हुए 'दत्ता' पद का अर्थ भी 'वाग्दत्ता कन्या गलत किया गया है, जो पूर्वोक्त हेतु से किसी तरह भी वहाँ नहीं बनता । इसके सिवाय, पतिसंगादधः' का अर्थ
आपने, 'पति के साथ संगम-संभोग-हो जाने के पश्चात् ' न करके, 'पाणिपीडन से पहले किया है--'पतिसंग'को 'पाणिग्रहण' पतलाया है और 'प्रध:' का अर्थ 'पहले' किया है। साथ ही, 'प्रवरै क्यादिदोषा:' के अर्थ में 'दोषा:' का अर्थ छोड़ दिया है और 'पादि'को 'ऐक्य' के बाद न रखकर उसके पहले रक्खा है, जिससे कितना है। अर्थदोष उत्पन्न हो गया है । इस तरह से सोनीजी ने इन पदों के उस समुचित मर्य तथा प्राशय को बदल कर, जो शुरू में दिया गया है, एक क्षतयोनि श्री के पुनर्विवाह पर पर्दा डालने की चेष्टा की है। परन्तु इस चेष्टा से उस पर पर्दा नहीं पड़ सकता । 'पतिसंग' का अर्थ यहाँ 'पाणिपीडन' करना विडम्बना मात्र है और उसका कहीं से भी समर्थन नहीं हो सकता । 'संग' और 'संगम' दोनों एकार्थवाचक शब्द हैं और वे स्त्री-पुरुष के मिथुनीभाव को सूचित करते हैं (संगमः, संगः स्त्रीपुंसोमिथुनी भावः ) जिसे संभोग और Sexual intercourse भी कहते हैं । शब्दकल्पद्रुम में इसी भाशय को पुष्ट करने वाला प्रयोग का एक अच्छा उदाहरण भी दिया है जो इस प्रकार है:
अम्बिका च गदा नाता नारी ऋतुमती तदा । संगं प्राप्य मुनेः पुत्रमसूतान्धं महाबलम् ॥
'अधः' शब्द 'पूर्व' या 'पहले अर्थ में कमी व्यवहृत नहीं होता परंतु 'पश्चात्' अर्थ में वह व्यवहृत जरूर होता है। जैसाकि 'अधीभक्त' पद से जाना जाता है जिसका अर्थ है 'भोजनान्तं पायमा पनादिकं'-मोजन के पश्चात् पीये जाने बाले जनादिक (a dose
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