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[२११ of water, medicine etc. to be takon after meals. V. S. Apte ) | और इसलिये सोनीजी ने 'पतिसंगादघा' का जो भर्य 'पाणिपीडन से पहले किया है वह किसी तरह भी नहीं बन सकता । पाणिपीडन नामक संस्कार से पहले तो 'पति' संहा की प्राप्ति भी नहीं होती-वह सप्तपदी के सातवें फ्द में जाकर होती है, जैसाकि पूर्व में उद्धृत 'नोदकेन' पद्य के 'पतित्वं सप्तमे पदे वाक्य से प्रकट है।जब 'पति' ही नहीं तो फिर 'पतिसंग' कैसा ? परंतु यहाँ 'पतिसंगात्' पद साफ पड़ा हुमा है । इसलिये वह सप्तपदी के बाद की संमोगावस्था को हा सूचित करता है। उस पर पर्दा नहीं डाला जा सकता।
भब रहा गालव के उल्लेख वाला १७६ वाँ पद्य, इसके अनुवाद में सोनीजी ने और भी गजब ढाया है और सत्य का बिलकुल ही निर्द. पता के साथ गला मरोड़ डाला है !! आप जानते थे कि बी के पुनर्विवाह का प्रसंग चल रहा है और पहले दोनों पणे में उसीका उल्लेख है । साथ ही, यह समझते थे कि इन पदों में प्रयुक्त हुए 'दत्ता' 'पुनर्दद्यात्' जैसे सामान्य पदों का अर्थ तो जैसे तैसे 'वाग्दान में दी हुई' प्रादि करके, उनके प्रकृत मर्य पर कुछ पर्दा डाला जा सकता है और उसके नीचे पुनर्विवाह को किसी तरह छिपाया जा सकता है परंतु इस पत्र में तो साफ तौर पर 'पुनरुद्धाहं' पद पड़ा हुमा है, जिसका अर्थ 'पुनर्विवाह' के सिवाय और कुछ होता ही नहीं और बह कपन-क्रम से नियों के पुनर्विवाह का ही वाचक है, इसलिये उस पर पर्दा नहीं डाला जा सकता । चुनाचे मापने अपने उसी लेख में, जो 'जातिप्रबोधक' में प्रकाशित बानू सूरजभानजी के लेख की समीक्षारूप से लिखा गया था, बाबू सूरजमानजी-प्रतिपादित इस पब के अनुवाद पर
और उसके इस निष्कर्ष पर कि यह लोक सियों के पुनर्विवाह-विषय को लिये हुए है कोई भापति नहीं की थी। प्रत्युत इसके बिच दिया पा--
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