Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 231
________________ [ २१७] . ने देव, ऋषि और पितर भेद से तीन प्रकार का तर्पण माना है (तर्पणं च शुचिः कुर्यात्प्रत्यहं स्नातको द्विजः । देवेभ्यश्च ऋषिभ्यश्च पितृभ्यश्च यथा क्रमम् ॥ इति शातातपः )। भट्टारकजी ने भी तीसरे अध्याय के पद्य नं७.८, ९ में इन तीनों भदों का इसी क्रम से विधान किया है । साथ ही, हिन्दुओं की उस विधि को भी प्रायः अपनाया है जो प्रत्येक प्रकार के तर्पण को किस दिशा की ओर मुँह करके करने तथा अक्षतादिक किस किस द्रव्य द्वारा उसे कैसे सम्पादन करने से सम्बन्ध रखती है। परन्तु अध्याय के अन्त में जो तर्पणमंत्र मापने दिये हैं उनमें पहले ऋषियों का, फिर पितरों का और अंत में देवतामों का तर्पण लिखा है। देवतामों के तर्पण में अर्हन्तादिक देवों को स्थान नहीं दिया गया किन्तु उन्हें ऋषियोंकी श्रेणी में रखा गया है--हालाकि पद्य नं० ८ में 'गौतमादिमहर्षीणां (न्व) तर्पयेद ऋषितीर्थतः' ऐसा व्यवस्थावाक्य था-और यह आपका लेखनकौशल अथवा रचनावैचित्र्य है !! परंतु इन सब बातों को मी छोड़िये, सबसे बड़ी बात यह है कि भट्टारकजी ने तर्पण का सब प्राशय और अभिप्राय प्राय: वही रक्खा है जो हिंदुओं का सिद्धान्त है । अर्थात् , यह प्रकट किया है कि पितरादिक को पानी या तिखोदकादि देकर उनकी तृप्ति करना चाहिये; तर्पण के जल की · देव पितरगण इच्छा रखते हैं, उसको ग्रहण करते हैं और उससे तृप्त होते हैं । जैसाकि नीचे लिखे वाक्यों से प्रकट है:-- प्रसंस्काराम ये केचिजज्ञाशाः पितरः सुराः । तेषां सतोपतृप्त्यर्थ दीयते सलिलं मया ॥ ११ ॥ अर्थात्--जो कोई पितर संस्कारविहीन मरे हो. जन की इच्छा रखते हों, और जो कोई देव जल की इच्छा रखते हों, उन सब के सन्तोष तथा तृप्ति के लिये में पानी देता हूँ-जन से तर्पण करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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