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[२१६] तिम्रः कोट्याऽर्घकोटी च याबद्रोमाणि मानुषे । वसन्ति तावत्तीर्थानि तस्मान्न परिमार्जयेत् ॥ १७ ॥ पिबन्ति शिरसा देवाः पिबन्ति पितरो मुखात् । मध्याश यक्षगन्धर्वा अधस्तात्सर्वजन्तवः ॥ १८ ॥
अर्थात्-मनुष्यके शरीरमें जो साढे तीन करोड़ रोम हैं, उतनेही उसमें तीर्थ हैं। दूसरे, शरीर पर जो स्लान जल रहता है उसे मस्तक परसे देव,मुख परसे पितर, शरीरके मध्यभाग परसे यक्ष गंधर्व और नीचके भाग परसे अन्य सब जन्तु पीते हैं। इसलिये शरीर के अंगोंको पोंछना नहीं चाहिये (पोंछने से उन तीथोंका शायद अपमान या उत्थापन होजायगा, और देवादिकों के जल ग्रहण कार्य में विघ्न उपस्थित होगा !!)।
जैनसिद्धान्तसे जिन पाठकों का कुछ भी परिचय है वे ऊपरके इस कयनसे भले प्रकार समझ सकते हैं कि भट्टारकजीका यह तर्पणविषयक कथन कितना जैनधर्म के विरुद्ध है। जैनसिद्धांत के अनुसार न तो देवपितरगण पानी के लिये भटकते या मारे मारे फिरते हैं और न तर्पण के जलकी इच्छा रखते या उसको पाकर तृप्त और संतुष्ट होते हैं । इसीप्रकार न वे किसी की घोती मादिका निचोड़ा हुआ पानी ग्रहण करते हैं और न किसी के शरीर परसे स्नान जलको पीते हैं। ये सब हिंदूधर्म की क्रियाएँ और कल्पनाएँ हैं । हिन्दुओं के यहाँ साफ़ लिखा है कि 'जब कोई मनुष्य स्नान के लिये जाता है तब प्याससे विहल हुए देव और पितरगण, पानी की इच्छा से वायु का रूप धारण करके, उसके पीछे पीछे जाते हैं । और यदि वह मनुष्य योंही स्नान करके वन (धोती भादि) निचोड़ देता है तो वे देवपितर निराश होकर लीट माते हैं। इसलिये तर्पण के पश्चात् बस निचोड़ना चाहिये पहले नहीं। जैसा कि उनके निम्नलिखित वचन से प्रकट है:--
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