Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 222
________________ [२०० पुनर्विवाह पर पर्दा डालने के लिय, उक्त पदों के प्रकृत और प्रकरणमंगत अर्थ को बदलने की चेष्टा की है । अन्यथा, 'दत्ताम्' का 'वाग्दान में दी हुई अर्थ तो किसी तरह भी नहीं बन सकता था, क्योंकि चतुर्थी के सोनी जी द्वारा आविष्कृत अर्यानुसार भी जब विवाहकार्य पाणिग्रहण की अवस्या तक पहुंच जाता है तब कन्यादान तो 'प्रदान' नाम की दूसरी क्रिया में ही हो जाता है और उस वक्त वह कन्या 'कन्या न रहकर 'वधू' तथा पाणिग्रहण के अवसर पर पत्नी बन जाती है+ । फिर भी सोनीजी का उसे वान्दान में दी हुई कन्या' लिखना और अन्यत्र यह प्रतिपादन करना कि विवाइ कन्या का ही होता है ' छल नहीं तो और क्या है ? आपका यह छल याज्ञवल्क्यस्मृति के एक टीकवाक्य के अनुवाद में भी जारी रहा है और उसमें भी आपने 'वाग्दान में दी हुई कन्या' जैसे अर्थों को अपनी तरफ से लाकर घुसेड़ा है । इसके सिवाय उक्त स्मृति के 'दत्वा कन्या हरन् दण्ज्यो व्ययं दधाच सोदयं' को उसी । विवाह) प्रकरण का बतलाया है, जिसका कि 'दत्तामपि हरेत्पूर्वाच्छेयांश्चद्वर आव्रजेत्' वाक्य है-हालाँकि वह वाक्य भिन्न अध्याय के भिन्न प्रकरण (दाय भाग) का है तया वाग्दत्ताविषयक स्त्रीधन के प्रसंग को लिये हुए है, और इसलिये उसे उद्धृत करना ही निरर्थक था। दूसरा वाक्य जो उद्धृत किया गया है उसम भी कोई समर्थन नहीं होता—न उसमें 'चतुर्थीमध्ये पद पड़ा हुआ है और न 'दत्ताम् का अर्थ टीका में ही 'वाग्दत्ता' किया गया है। बाकी टीका के अन्त में +जैसाकि 'पाप्रदानात् भवेत्कन्या' नाम के उस वाक्य से प्रकट है जो इस प्रकरण के शुरू में उदधृत किया जा चुका है । हाँ, सोनीजी ने अपने उस लेख में लिखा है कि "तीनपदी तक कन्या संज्ञा रहती है, पश्चात् चौथीपदी में उसकी कन्या संज्ञा दूर होजाती है"। यह लिखना मी मापका शायद वैसा ही अटकनपच्चू और बिना सिर पैर का जान पड़ता है जैसा कि उन ग्लोकों का मनुस्मृति के बतलाना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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