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मुखः।
[१७] जो रात्रि को भोजनपान न करते हों अथवा जिन्होंने संयमादिक की किसी दृष्टि से णन का खाना ही छोड़ रक्खा हो !! परन्तु इन सब बातों का भी छोहिये, इस विधि में चार श्लोक खासतौर से उल्लेखनीय हैं-भट्टारकजी ने उन्हें देने की खास ज़रूरत समझी है-और वे इस प्रकार हैं:--
भुक्तवानुपविष्टस्तु शय्यायामभिसम्मुखः । संस्मृत्य परमात्मानं पत्न्या जंघे प्रसारयेत् ॥ ४१ ॥ अलोमश च सदुचामनाद्रां सुमनोहराम् । योनि स्पृष्ट्वा जपेन्मत्रं पवित्रं पुत्रदायकम् ॥ ४२ ॥ मोटावाकर्षयदोरैरन्योन्यमविलोकयेत् ।। स्तनो धृत्वा तु पाणिन्यामन्योन्यं चुम्बयेन्मुखम् ॥ ४४ ॥ बलं दहीति मंत्रेण योन्यां शिश्नं प्रधशयेत् ।
योनेस्तु किंचिदधिकं भवलिङ्ग बलान्वितम् ॥ ४५ ॥ इन श्लोकों के बिना भट्टारकजी की भोग-विधि शायद अधूरी ही रह जाती ! और लोग समझ ही न पाते कि भोग कैसे किया करते हैं !! प्रस्तु; इन सब श्लोकों में क्या लिखा है उसे बतलाने की हिन्दी और मराठी के दोनों अनुवादकर्ताओं में से किसी ने भी कृपा नहीं की-सिर्फ पहने दो पद्यों में प्रयुक्त हुए 'भुक्तवान्', 'उपविष्टस्तु शय्यायां', 'सम्मृत्य परमात्मानं', 'जपेन्मंत्रं पुत्रदायक' पदों में से सबका अथवा कुछ का मर्थ दे दिया है और बाकी सब छोड़कर लिख दिया है कि इन श्लोकों में बतलाई हुई विधि अथवा क्रिया का अनुष्ठान किया जाना चाहिये । पं० पनालानाजी सोनी की अनुवाद-पुस्तक में एक नोट भी लगा हुभा है, जिसमें लिखा है कि__ "मलीलता और प्रशिष्टाचार का दोष माने के समय ४२३ श्लोक
.४१ वे श्लोक में कही गई पत्न्या जंघे प्रसारयेत्' जैसी किया का भी तो भाषानुवाद नहीं किया गया ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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