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[२०] है वह उनकी नासमझी का द्योतक है। पद्य के इस उत्तरार्ध में, जिसका पूर्वार्ध है 'नोद्वाहिकेषु मंत्रेषु नियोगः कीर्त्यते क्यचित्.' 'विधवावेदनं' पद अपने पूर्वापरसम्बंध से 'नियोग' का वाचक है-संतानोत्पत्ति के लिये विधवा के अस्थायी ग्रहण का सूचक है-और इसलिये उक्त वाक्य का प्राशय सिर्फ इतना ही है कि 'विवाह-विधि में नियोग नहीं होता-नियोग-विधि में नियोग होता है'-दोनों की नीति और पद्धति भिन्न भिन्न हैं । अन्यथा, मनुजी ने उसी अध्याय में परित्यक्ता ( तलाक दी हुई) और विधवा दोनों के लिये पुनर्विवाहसंस्कार की व्यवस्था की है, जैसाकि मनुस्मृति के निम्नवाक्यों से प्रकट है:
या पत्या वा परित्यक्ता विधवा वा स्वेच्छया। उत्पादयत्पुनर्भूत्वा स पौनर्भव उच्यते ॥ १७५॥ सा चेदक्षतयोनिः स्याद्गतप्रत्यागतापि वा ।
पौनर्भवेन भत्र सा पुनः संस्कारमहति ॥ १७६ ।। 'वशिष्ठस्मृति' में भी लिखा है कि जो स्त्री अपने नपुंसक,पतित या उन्मत्त भार को छोड़कर अथवा पति के मर जाने पर दूसरे पति के साथ विवाह करती है वह 'पुनर्भू' कहलाती है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि पाणिग्रहण संस्कार हो जाने के बाद पति के मर जाने पर यदि वह मंत्रसंस्कृता स्त्री अक्षतयोनि हो-पति के साथ उसका संभोग न हुआ हो-तो उसका फिर से विवाह होना योग्य है । यथा:
"या क्लीवं पतितमुन्मत्तं वा भर्तारमुत्सृज्यान्यं पति विन्दते मृते वा सा पुनर्भवति ॥ "पाणिप्रहे मृते बासा केवलं मंत्रसंस्कृता । सावक्षतयोनिः स्यात्पुनःसंस्कार मर्हति ॥
-१७ वा अध्याय । इसी तरह पर 'नारद स्मृति' भादि के और कौटिलीय अर्थशास्त्र के भी कितने ही प्रमाण उद्धृत किये जा सकते हैं। पराशर स्मृति' का
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