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[१८९ पाक्य के साथ प्रारम्भ होता है । भट्टारकजी ने विवाह रात्रि के बाद से-उस रात्रि के बाद से जिस रात्रि को पंचाङ्गविवाद की सम्पूर्ण विधि समाप्त हो जाती है-चतु कर्म का उपक्रम करते हुए. प्रति दिन सुबह के वक्त पौष्टिक कर्म भोर रात्रि के समय शांतिहोम करने की व्यवस्था की है,
और फिर चौथे दिन के प्रभातादि समयों का कृत्य बतलाया है, जिसमें विवाहमंडप के भीतर पूजनादि सामग्री से युक्त तथा अनेक चित्रादिकों से चित्रित एक महामंडल की नवीन रचना वधू का नूतन कलश स्थापन संध्या के समय वधू वर का वहाँ गति वात्रि के मायबान और उन्हें गंधाक्षतप्रदान भी शामिल है। इसके बाद संक्षेप में चतुर्थरात्रि का कृत्य दिया है और उसमें मुख्यतया नीचं निखी क्रियाओं का उवम्व किया है
(१) ध्रुवतारा निरीक्षण के अनन्तर सभा की पूजा (२) भगवान का अभिषेक-पुरस्सर पूजन तथा होम (३) होम के बाद पत्नी के गले में घर की दी हुई सोने की तानी का मंत्रपूर्वक बाँधा जाना (४) मंत्र पढ़कर दोनों के गल में सम्बंधमाला का डाला जाना (५) नागों का तर्पण अथवा उन्हें बलि का दिया जाना (६) अग्नि पूजनादि के अनंतर वर का पान बीड़ा नेवार बमहित नगर को देखन जाना (७) तताश्चात् होग के शेष कार्य को पूरा करके पूर्णाहुति का दिया जाना (८) होम की मस्म का वर वधू को वितरण •स कथन के कुछ वाक्य नीचे दिये जान है"नप्रमृति नित्यं च प्रभात पोषिकं मनम्। निशीथे शनि रामेऽमि चतुणे नागतणम् ॥ १४८ ॥ तवं चिप्रमाने व गृधमएडायोः पृयका सम्मान १४६॥ "भवानं घरं...."संस्थागधार पनी १५३॥ "समित्येवमेनम्महामएसंगपूजार्चनायोग्य सद्रव्यपूर्णम् ॥१८॥ "सरागेऽतिसंशाभिधानेहमीरपरस्याल वस्त्राःशुभस्नाना" संसामन युज्यते चादरेण सुमांगल्य वादिनानादिपर्वम्॥१६॥ "*सदिम्वगात्रस्य गंधारादिव सुगंधवांमबीति...
संचारितामक्षता मन्येवं भवन्तु । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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