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[१२] के निषेधक रहे होंगे। और इसलिये जब तक गालव ऋषि के किसी वाक्यसे यह सिद्ध न कर दिया जाय कि वे विधवाविवाह के निषेधक नहीं थे तबतक भट्टारकजी के उक्त सामान्य व्यवस्था वाक्य नं०१७६ पर से जो लोग विधवा विवाह का अ.शय निकालते हैं उसपर कोई खाम आपत्ति नहीं की जासकती। सगाई (मैंगनी ) हुई हो किन्तु विवाह न हुआ हो। ऐसे लोगों को मालूम होना चाहिये कि श्लोक के उत्तरार्ध में जो ' तिरन्यो' (दूसरा पति ) पाठ गड़ा हुआ है वह पूर्वार्ध में 'पतो' की ही स्थिति को चाहता है-'प्रपती' की नीं-अर्थात् जिसके मरने वगैरह पर दूसरे पति की व्यवस्था की गई है वह 'पति' ही होना चाहिय 'अति' नहीं। और 'पति' संबा उसीको दी जाती है जो विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार से संस्कारित होकर सप्तपदी को प्राप्त हुभा हा-महज़ वाग्दान वगैरह की वजह से किसी को 'पतित्व' की प्राप्ति नहीं होती; जैसा कि 'उद्वाहतत्व ' में दिये हुए 'यम' ऋषि के निम वाक्य से प्रकट है:
नांदकेन न पा वाचा कन्यायाः पतिरिष्यते ।
पाणिग्रहणसंस्कारात् पतित्वं सप्तमे पदे ।। (शब्दकल्पद्म) इसके सिवाय, हनना और भी जान लेना चाहिये कि प्रथम ना यह पार्ष प्रयोग है, और प्रार्थ प्रयोग कभी कभी व्याकरण से मित्र भी होते हैं। दूसरे, छन्द की दृष्टि से कवि लोग अनेक बार व्याकरण के नियमों का उल्लंघन कर जात है, जिसके प्राचीन साहित्य में भी कितन ती उदाहरण मिलते हैं। बहुन संभव है 'पत्यो ' की जगह
पता: पद का यह प्रयोग छन्द की दृष्टि से ही किया गया हो; अन्यथा परामजी इस शब्द के पत्या' रूप से भी अभिज्ञ थे और उन्होंने अपनी स्मृति में 'पत्या' पद का भी प्रयोग किया है, जिसका एक उदाहरण 'पत्यो जीवति कुण्डस्तु मृत भर्तरि गोलकः' (४-२३) है । तासर 'पतौ' पदका प्रयोग उक्त स्मृति में अन्यत्र भी पाया जाता है, जिसका 'मानो' वहाँ पन ही नहीं सकता। और उस प्रयोगवाक्य से यह साफ जाहिर है कि जो स्त्री पनि के मरने, खो जाने अथवा उमके त्याग देने पर पुनर्विवाह न करके जार से गर्भ धारण करती
है उसे पराशरजी ने 'पतिता' और 'पापकारिणी लिखा है-उन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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