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[१३] कितना ही पता चल जाता है । जो लोग विवाह-विषय पर सम्मति दे देने से ही ब्रह्मचर्य में दोष या अतीचार का लगना बतलाते हैं वे, मालूम नहीं, ऐसी भोगप्रेरणा को लिये हुए अश्लील उद्गार निकालने वाले इन भट्टारकजी के ब्रह्मचर्य-विषय में क्या कहेंगे ? और उन्हें श्रावकों की दूसरी प्रतिमा में भी स्थान प्रदान करेंगे या कि नहीं ? अस्तु वे लोग कुछ ही कहें अथवा करें. किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि भट्टारकजी का यह सब विधि-विधान, जिस वे 'कामयज्ञ' बतलाते हैं और जिसके अनुष्ठान मे 'संसार समुद्र से पार तारने वाला पुत्र' पैदा होगा एमा लालच दिखलाते हैं *, जैनशिष्टाचार के बिलकुल विरुद्ध है और जनसाहित्य को कलंकित करने वाला है। जान पड़ता है, भट्टारकजी ने उसे देने में प्रायः वाममार्गियों अथवा शक्तिकों का अनु. करण किया है और उनकी 'योनिपूजा' जैसा घृणित शिक्षाओं को जैन समाज में फैलाना चाहा है । अत: आपका यह सब प्रयत्न किसी तरह भी प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता ।
यहां पर एक बात और भी बतला देने की है और वह यह कि ४५ वें पद्य में जो 'बलं देहीति मंत्रण' पाठ दिया है उससे यह स्पष्ट ध्वनित हाता है कि उसमें जिस मंत्र का उल्लेख किया गया है वह 'बलं देहि' शब्दों से प्रारंभ होना है। परन्तु भट्टारकजी ने उक्त पद्य के मनन्तर जा गंत्रादया है वह 'बलं देहि' अथवा 'ॐ बलं देहि जैसे शनों से प्रारंभ नहीं हाता, किन्तु 'ॐ ह्रीं शरीरस्थायिनो देवता मां बलं ददतु स्वाहा' इस रूप को लिये हुए है, और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि भट्टारकजी ने उस मंत्र को बदल
यय:
काम यामिति प्राहुरिणां सर्वदेव च ।
अनने खभते पुत्रं संसारावतारकम् ॥ १॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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