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पाठकजन ! देखा, कितनी मभ्यता और शिष्टता को लिये हुए कथन है ! एक 'धर्मरसिक' .... व ले ग्रं के लिये कितना उपयुक्त है !! और अपने को 'मुनि' णी' तथा मुनीन्द्र' तक लिखने वाले भट्टारकजी को कहाँ तक शोभा देता है !!! खेद है भट्टारकजी को विषय--सेवन का इस तरह पर खुला उपदेश देते और स्त्री-संभोग की स्पष्ट विधि बतलाते हुए जरा भी लज्जा तथा शरम नहीं आई !! जिन बातों की चर्चा करने अथवा कहने सुनने में गृहस्थों तक को संकोच होता है उन्हें वैराग्य तथा ब्रह्मचर्य की मूर्ति बने हुए मुनिमहाराजजी बड़े चाव से लिखते हैं. यह सब शायद कलियुग का ही माहात्म्य है !!! मुझे तो भट्टारकजी की इस रचनामय लीला को देखकर कविवर भूधरदासजी का यह वाक्य याद आजाता है
रागउदै जग अंध भयो, महज सब लोगन लाज गवाई । सीख बिना नर सीखत हैं, विषयादिक सेवन की सुघगई ।। ता पर और रचे रस काव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई ! अंध असूझन की अंखियान में. झाकत हैं रज रामदुहाई !!
सचमुच ही ऐस कुकवियों, धर्माचायों अथवा गोमुखव्याघ्रों से राम बचाव !! वे स्वयं तो पतित होते ही हैं किन्तु दूसरों को भी पतन की ओर ले जाते हैं !!! उनकी निष्ठुरता, नि:सन्देह, अनिर्वचनीय है । भट्टारकजी के इन उद्गारों से उनके हृदय का भाव झलकता हैकुरुचि तथा लम्पटता पाई जाती है और उनके ब्रह्मचर्य की थाह का
इच्छापूर्ण भवेद्याव भयोः कामयुक्तयोः ।
रंतः सिंचेत्तता योन्यां तेन गर्भ विभर्ति सा ॥४७॥ ४१ वे पद्य का उत्तगर्ध और इम पद्य का उत्तरार्ध दोनों मिल कर हिन्दुओं के प्राचारार्क' ग्रंथ का एक पद्य होता है, जिस संभवतः
यहाँ विभक्त करके रखा गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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