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[१७७] का उल्लेख है, हिन्दू-धर्म के किसी ग्रंथ से लिया गया अथवा कुछ परिवर्तन करके एक्खा गया मालूम होता है; क्योंकि हिन्दू-ग्रंथों में ही इस प्रकार की प्राज्ञाएँ प्रचुरता के साथ पाई जाती हैं । पराशरजी ने तो ऐसी स्त्री को सीधा नरक में भेजा है और फिर मनुष्ययोनि में लाकर उसे बार बार विधवा होने का भी फतवा (धर्मादेश) दिया है । यथाः
तुशामा तु वा नारी भतार नोपसर्पति । खामृता बरकं वाति निधवा च पुनः पुनः ॥४-१४ ।।
-पराशरस्मृति। इस पद्य का पूर्वार्ध और भट्टारकजी के दूसरे पद्यका पूर्वार्ध दोनों एकार्यवाचक हैं । संभव है इस पद्य पर से ही भट्टारकजी ने अपने पद्य की रचना की हो । उन्हें उस स्त्री को क्रमश: नरक तथा मनुष्य गति में न बेज कर खालिस तियंच गति में ही घुमाना उचित जचा हो और इसीलिये गहोंने इस पत्र के उत्तरार्ध को अपनी इच्छानुसार बदला हो । परंतु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि भट्टारकजी ने कुछ दूसरों की नकल करके और कुछ अपनी प्रकल को बीचमें दखल देकर जो ये बेढंगी व्यवस्थाएँ प्रस्तुत की हैं उनका जैनशासन से कुछ भी सम्बंध नहीं है। ऐसी नामाकूल व्यवस्थाएँ कदापि जैनियों के द्वारा मान्य किये जाने के योग्य नहीं ।
अश्लीलता और अशिष्टाचार । (२५) व्रत, नियम, पर्व, स्वास्थ्य, अनिच्छा और असमर्थता यादि की कुछ पर्वाह न करते हुए, ऋतुकाल में अवश्य भोग करने की व्यवस्था देने वाले अथवा भोग न करने पर दुर्गति का फर्मान जारी
की गई है । परन्तु मट्टारकजी ने उन पयों को यहाँ संग्रह नहीं किया और न उमका प्राशय अपने शब्दों में प्रकट किया। इससे यह और भी साफ़ रो जाता है कि उन्होंने ऋतुकाल में भोग न करने वालों को हर हालत में भ्रूणरत्या का अपराधी ठहराया है !!
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