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[१७५] पाठकजन ! देखा, कैसी विचित्र व्यवस्था है ! ! भले ही वे दिन पर्व के दिन हों, स्त्रीपुरुषों में से कोई एक अथवा दोनों ही व्रती हों, बीमार हों, अनिच्छुक हों, तीर्थयात्रादि धर्म कार्यों में लगे हों या परदेश में स्थित हों परन्तु उन्हें उस वक्त भोग करना ही चाहिये !! यदि नहीं करते हैं तो वे उक्त प्रकार से घोर पाप के भागी अथवा दुर्गति के पात्र होते हैं !!! इस अन्यायमूलक व्यवस्था का भी कहीं कुछ ठिकाना है !! स्वरुचि की प्रतिष्ठा, सत्संयम के अनुष्ठान, ब्रह्मचर्य के पालन और योगाभ्यासादि के द्वारा अपने अभ्युदय के यत्न का तो इसके आगे कुछ मूल्य ही नहीं रहता !!! समझ में नहीं आता भ्रूण (गर्भस्थ बालक ) के विधमान न होते हुए भी उसकी हत्या का पाप केसे लग जाता है ? यदि भोग किया जाता तो गर्भ का रहना सम्भव था, इस संभावना के आधार पर है। यदि भोग न करने से भ्रूणहत्या का पाप लग जाता है तब तो कोई भी त्यागी, जो अपनी स्त्री को छोड़कर ब्रह्मचारी या मुनि हुआ हो, इस पाप से नहीं बच सकता । और जैनसमाज के बहुत से पूज्य पुरुषों अथवा महान् मात्मामों को घोर पातिकी तथा दुर्गति का पात्र करार देना होगा। परन्त ऐसा नहीं है। जैनधर्म में ब्रह्मचर्य की बड़ी प्रतिष्ठा है और उसके प्रताप से असंख्य व्यक्ति ऋतुकाल में भोग न करते हुए भी पाप से अलिप्त रहे हैं,
और सद्गति को प्राप्त हुए है । जैनदृष्टि से यह कोई लाजिमी नहीं कि ऋद काल में भोग किया ही जाय । हाँ, भोग जो किया जाय तो वह संतान के लिये किया जाय और इस उद्देश्य से ऋतुकाल में ही किया जाना चाहिये, ऐसी उसकी व्यवस्था है। और उसके साथ शक्ति तथा कालादिक की विशेषापेक्षा भी लगी हुई है-अर्थात् वे स्त्री पुरुष यदि उस समय रोगादिक के कारण या और तौर पर वैसा करने के लिये असमर्थ न हों, और वह समय भी कोई पर्वादि वर्मा काल न हो तो वे परस्पर कामसेवन कर सकते
है। दूसरी अवस्था के लिये ऐसा नियम अथवा क्रम नहीं है । और यह बात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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