________________
[१७३] कि मट्टारकजी हमें मनुष्यत्र से गिरा कर पशुओं से भी गया बीता बनाना चाहते थे और उन्होंने हमारे उदार दयाधर्म को कलंकित तथा विडम्बित करने में कोई कसर नहीं रक्खी। और यदि ऐसा नहीं है तो उनके उक्त उद्गार का फिर कुछ भी मूल्य नहीं रहता-वह निरर्थक और निःसार जान पड़ता है। मालूम होता है भट्टारकजी ने स्पृश्याऽस्पृश्य की समीचीन नीति को ही नहीं समझा और इसीलिये उन्होंने बिना सोचे समझे ऐसा ऊटपटाँग लिख मारा कि 'इन लोगों को कभी भीन छूना चाहिये !! मानों ये मनुष्य स्थायी अछूत हों और उस मल से भी गये बीते हों जिसे हम प्रतिदिन छूते हैं !!! मनुष्यों से और इतनी घृणा !!! धन्य है ऐसी समझ तथा धार्मिक बुद्धि को !!!
अन्त में, भट्टारकजी ने जिस लोकापवाद का भय प्रदर्शित किया है वह इस संपूर्ण विवेचन पर से मूखों की मूर्खता के सिवाय और कुछ भी नहीं रह जाता, इसीसे उस पर कुछ लिखना व्यर्थ है । निःसंदेह, जब से इन भट्टारकजी जैसे महात्माओं की कृपा से जैनधर्म के साहित्य में इस प्रकार के अनुदार विचारों का प्रवेश होकर विकार प्रारम्भ हुआ है तब से जैनधर्म को बहुत बड़ा धक्का पहुँचा है और उसकी सारी प्रगति रुक गई । वास्तव में, ऐसे संकीर्ण तथा अनुदार विचारों के अनुकूल चलने वाले संसार में कभी कोई उन्नति नहीं कर सकते और न उच्च तथा महान् बन सकते हैं।
ऋतुकाल में भोग न करने वालों की गति ।
(२४) आठवें अध्याय में भट्टारकजी ने यह तो लिखा ही है कि 'ऋतुझान में भोग करने वाला मनुष्य परमगति ( मोक्ष ) को प्राप्त होता है और उसके ऐसा सत्कुलीन पुत्र पैदा होता है जो पितरों को खर्ग प्राप्त करा देता है' x ! परन्तु ऋतुकाल में भोग न करने वाले
x ऋतुकालोप [वामि] गामी तु प्रामोति परमां गतिम् ।
सत्कुतः प्रभवेत्पुत्रः पितृणां स्वगंदो मतः ॥ ४ ॥ इस पयका पूर्वार्ष संवर्तस्मति' के पच नं० १०० का रचरा है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com