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[११] हृदय-संकीर्णता व्यक्त करना है और पाखण्ड का का उपदेश देनी है । ऐसी ही हालत उन लोगों से कभी कोई चीज न लेने के उद्गार की है। उनसे अच्छी, उपयोगी तथा उत्तम चीजों का न्यायमार्ग से ' लेना कभी दूषित नहीं कहा जा सकता । ऐसे लोगों में से कितने ही व्यक्ति जंगलों, पहाड़ों, समुद्रों तथा भूगर्भ में से अच्छी उत्तम उत्तम चीजें निकालते हैं। क्या उनसे वे चीजें लेकर नाम न उठाना चाहिये ! क्या ऐसे लोगों द्वारा वन-पर्वतों से माई हुई उत्तम औषधों का भी व्यवहार न करना चाहिये ? और क्या चमारों से उनके बनाये हुए मृत चर्म के जूते भी लेने चाहिये ! इसके सिवाय एक मुसलमान, ईसाई अथवा वैसा ( उपर्युक्त प्रकार का ) कोई हीनाचरण करने वाला हिन्दू भाई यदि किसी औषधालय, विद्यालय अथवा दूसरी लोकोपकारिणी सेवा संस्था को द्रव्यादि की कोई अच्छी सहायता प्रदान करे तो क्या उसको वह सहायता संस्था के अनुरूप होते हुए भी स्वीकार न करनी चाहिये ? और क्या इस प्रकार का सब व्यवहार कोई बुद्धिमानी कहला सकता है ! कदापि नहीं । ऐसा करना अनुभवशुन्यता का द्योतक और अपना ही नाशक है । संसार का सब काम परस्पर के लेनदेन और एक दूसरे की सहायता से चलता है । एक मच्छीमार सीप में से मोती निकाल कर देता है और बदले में कुछ द्रव्य पाता है अथवा एक चमार से जूता या चमचा लिया जाता है तो मूल्यादि के तौर पर उसे कुछ दिया जाता है। इसी तरह पर नोक-व्यवहार प्रवर्तता है । क्या वह मोती जो मांस में ही पैदा होता तथा वृद्धि पाता है उस मच्छीमार का हाथ लगने से अपवित्र या विकृत हो जाता है ! अथवा वह चमड़ा चमार के कर-स्पर्श से विगुणित और दूषित बन जाता है ? यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर उन लोगों से कोई भी चीज न लेने के लिये
कहना क्या पर्व रखता है। वह निरी सकीर्णता और हिमाकत नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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