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[१७४] स्त्री-पुरुषों की जिस गति का उल्लेख किया है वह और भी विचित्र है । श्राप लिखते हैं:
* ऋतुस्नातां तु यो भायां सन्निधौ नोपय [ग] च्छति । घोरायां भ्रूणहत्यायां पितृभिः सह मजति ॥ ४६ ॥ ऋतुस्नाता तु या नारी पतिं नैवोपविन्दति ।
शुनी वृकी शृगाली स्थाच्छूकरी गर्दभी च सा ॥ ५० ॥ अर्थात् -जो पुरुष अपनी ऋतुस्नाता-ऋतुकाल में स्नान की हुईस्त्री के पास नहीं जाता है-उससे भोग नहीं करता है-वह अपने पितरों सहित भ्रूणहत्या के घोर पाप में डूबता है-- स्वयं दुर्गति को प्राप्त होता है और साथ में अपने पितरों ( माता पितादिक ) को भी ले मरता है । और जो ऋतुस्नाता स्त्री अपने पति के साथ भोग नहीं करती है वह मर कर कुत्ती, भेड़िनी, गीदड़ी सूअरी और गधी होती है।
* इस पद्य का अर्थ देने के बाद सोनीजी ने एक बड़ा ही विल. क्षण 'भावार्थ' दिया है जो इस प्रकार है:
"भावार्थ-कितने ही लोग ऐसी बातों में आपत्ति करते हैं। इसका कारण यही है कि वे अाजकल स्वराज्य के नसे में चूर हो रहे हैं। अतः हरएक को समानता देने के आवेश में आकर उस क्रिया के चाहने वाले लोगों को भड़का कर अपनी ख्याति-पूजा आदि चाहते हैं । उन्होंने धार्मिक विषयों पर आघात करना ही अपना मुख्य कर्तव्य समझ लिया है।" ___ इस भावार्थ का मूल पद्य अथवा उसके अर्थ से ज़रा भी सम्बंध नहीं है । ऐसा मालूम होता है कि इसे लिखते हुए लोनीजी खुद ही किसी गहरे नशे में चूर थे । अन्यथा, ऐसा बिना सिर पैर का महा. हास्यजनक 'भावार्थ' कभी भी नहीं लिखा जा सकता था।
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