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[१६८] है + । शायद आपको इस प्रसंग पर वह इष्ट न रही हो । और यह भी हो सकता है कि हिन्दू-धर्म के किसी दूसरे वाक्य पर से ही आपने अपने वाक्य की रचना की हो अथवा उसे है। ज्यों का त्यों उठाकर रख दिया हो । परंतु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि यह व्यवस्था हिन्दुओं से ली गई है—जैनियों के किसी भी माननीय प्राचीन ग्रंथ में वह नहीं पाई जाती--हिंदुओं की ऐसी व्यवस्थाओं के कारण ही दक्षिण भारत में, जहाँ ऐसी व्यवस्थाओं का खास प्रचार हुआ है, अन्त्यज लोगों पर घोर अत्याचार होता है-वे कितनी ही सड़कों पर चल नहीं सकते अथवा मंदिरों के पास से गुज़र नहीं सकते, उनकी छाया पड़ जाने पर सचेल स्नान की ज़रूरत होती है--और इसीलिये अब उस अत्याचार के विरुद्ध सहृदय तथा विवेकशील उदार पब्लिक की आवाज़ उठी हुई है। ( ख )प्रजाघ्नगानमत्स्यनाः कल्लालाश्चमकारकाः ।
पापर्धिकः सुरापायी एतैर्वस्तुं न युज्यते ॥ १३० ॥ एतान्किमपि नो देयं स्पर्शनीयं कदापि न । न तेषां वस्तुकं ग्राह्य जनापवाददायकम् ॥ १३१ ॥
-७ वा अध्याय । इन पद्यों में कहा गया है कि 'जो लोग बकरा बकरी का घात करने वाले ( कसाई आदिक ) हों, गोकुशी करने वाले ( मुसलमान आदि म्लेच्छ ) हो, मच्छी मारने वाले ( ईसाई या धीवरादिक ) हों, शराब का व्यापार करने वाले ( कलाल ) हों, चमड़े का काम करने वाले ( चमार ) हों, कोई विशेष पाप का काम करने वाले पातिकी (पापर्धिक) हों, अथवा शराब पीने वाले हों, उनमें से किसी के भी साथ बोलना
+ जैसे रजस्वला स्त्री की चौथे दिन पंचगव्य से-गोबर गोमूत्रा. दिक से स्नान करने पर शुद्धि मानी है । यथाः
चतुर्थे वासरे पंचगव्यैः संस्नाफ्वेश्च ताम् ॥८-१०n.
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