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अन्त्यजों को भी धर्म का अधिकारी बतला कर उन्हें श्रावकों की कोठि में रखता है उसका, अथवा उन तीर्थंकरों का कदापि ऐसा अनुदार शासन नहीं हो सकता, जिनकी 'समवसरण' नामकी समुदार सभा में ऊँच नीच के भेद भाव को भुला कर मनुष्य ही नहीं किन्तु पशु-पक्षी तक भी शामिल होते थे और वहाँ पहुँचते है। आपस में ऐसे हिलमिल जाते थे कि अपने अपने जातिविरोध तकको भुला देते थे - सर्प निर्भय होकर नकुल के पास खेलता था और बिल्ली प्रेम से चूहे का आलिंगन करती थी। कितना ऊँचा आदर्श और कितना विश्वप्रेम-यय भाव है ! कहाँ यह आदर्श ? और कहाँ भट्टारकजी का उक्त प्रकार का घृणात्मक विधान ? इससे स्पष्ट है कि भट्टारकजी का यह सब कथन जैनधर्म की शिक्षा न होकर उससे बाहर की चीज़ है । और वह हिन्दू-धर्म से उधार लेकर रक्खा गया मालूम होता है । हिन्दुओं के यहाँ उक्त वाक्य से मिलता जुलता 'यम' ऋषि का एक वाक्य # निम्न प्रकार से पाया जाता है :
अन्त्यजेः खामिताः कूपास्तडागानि तथैव च ।
एषु खात्वा च पीत्वा च पंचगव्येन शुद्धयति ॥
इसमें यह बतलाया गया है कि 'अन्त्यजों के खोदे हुए कुम तथा तालाबों में स्नान करने वाला तथा उनका पानी पीने वाला मनुष्य अपवित्र हो जाता है और उसकी शुद्धि पंचगव्य से होती है-जिसमें गोबर और गोमूत्र भी शामिल होते हैं। सम्भवतः इसी वाक्य पर से भट्टारकजी ने अपने वाक्य की रचना की है । परन्तु वह मालूम नहीं होता कि पंचगव्य से शुद्धि की बात को हटाकर उन्होंने अपने पथ के उत्तरार्ध को एक दूसरा ही रूप क्यों दिया है ? पंचगम्य से शुद्धि की इस हिन्दू व्यवस्था को तो आपने कई जगह पर अपने ग्रंथ में अपनाया
*देखां नारायण वित-संग्रहीत 'मान्दिक सुभावत'
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