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[१५६] जह भाव को लिये हुए है और उसके फलों तथा लाख में असंख्याते प्रस जीवों के मृत कलेवर शामिल रहने से अच्छी खासी अपवित्रता से
सिद्ध कर सके हैं ! उन्होंने यह तो स्वीकार किया है कि आगम में वृक्ष पूजा को बुरा तथा लोकमूढता बतलाया है और उसके अनु. सार इस पीपल पूजा का लोकमूढता में अन्तर्भाव होना चाहिये । परन्तु प्रन्थकार भट्टारकजी ने चूंकि यह लिख दिया है कि ऐसा करने में मिथ्यात्व का दोष नहीं लगता' इससे आपकी बुद्धि चकरा गईहै और आप उसमें किसी रहस्य की कलाना करने में प्रवृत्त हुए ₹--यह कहने लगे हैं कि "इसमें कुछ थोडासा रहस्य है"। लेकिन वह रहस्य क्या है, उसे बहुत कुछ प्रयत्न करने अथवा इधर उधर की बहुत सी निरर्थक बातें बनाने पर भी प्राप खोल नहीं सके और अन्त में भापको भनिश्चित रूप से यही लिखना पड़ा-"संभव है कि जिस तरह क्षेत्र को निमित्त लेकर ज्ञान का क्षयोपशम हो जाता है वैसे ही ऐसा करने से भी शान का क्षयोपशम हो जाय"..."संभव है कि उस वृक्ष के निमित्त से भी भात्मा पर ऐसा असर पड़ जाय जिससे उसकी मात्मा में विलक्षणता भाजाय ।" इससे सोनीजी की जैनधर्म-विषयक श्रद्धा का भी कितना ही पता चल जाता है। प्रस्तु, मापकी सबसे बड़ी युक्ति इस विषय में यह मालूम होती कि जिस तरह पर की इच्छा से गादिक नदियों में स्नान करना बोकमरता होते हुए भी वैसे रा-बिना उस इच्छा के-महज़ शरीर की ममयदि
लिये नमें स्नान करना बोकमढ़ता नहीं है, उसी तरह यहो. पपीत की विशेष विधि में बोधि (पान) की इच्छा से बोधि (पीपक) पक्षकी पूजा करने में भी कोकमहता अथवा मिथ्यात्व का दोष म होना चाहिये । यद्यपि भापके इस युति-विधान में बर की इमा
दोनों जगह समान है और इसलिये उस बोषि परकीच्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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