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हिन्दुओं के यहाँ अर्कविवाह का विस्तार के साथ विधान पाया जाता है, उनके कितने ही ऋषियों की यह धारणा है कि मनुष्य की तीसरी श्री मानुषी न होनी चाहिये, यदि मानुषी होगी तो वह विधवा हो जायगी, इससे तीसरे विवाह से पहले उन्होंने अर्कविवाह की यो. जना की है-अर्क वृक्ष के पास जाकर स्वस्तिवाचनादि कृत्य करने, अर्क की पूजा करने, भर्क से प्रार्थना करने और फिर अर्क-कन्या के साथ विवाह करने मादि की सम्पूर्ण व्यवस्था बतलाई है । इस विषय का कयन हिन्दुओं के कितने ही प्रन्यों में पाया जाता है । 'नवरत्नविवाहपद्धति' में भी पाठ पृष्ठों में उसका कुछ संग्रह किया गया है। उस पर से यहाँ कुछ वाक्य नमूने के तौर पर उद्धृत किये जाते हैं:
"बहेद्रातिसिद्धयर्थ तृतीयां न कदाचन । मोहादज्ञानतो वापि यदि गच्छेतु मानुषीम् । नश्यत्यव न संदेहो गर्मस्य बचनं यथा। "तृतीयं यदि चोद्धाहेत्तर्हि सा विधवा भवेत् ॥ चतुर्थ्यादि विवाहाचं वतीयेऽ समुद्वदेत् ।" "तृतीये श्रीविवाहे तु संप्राप्ते पुरुषस्य तु॥ मार्क विवाह वक्ष्यामि शौनकोऽह विधानतः । भसनिधिमागत्य तत्र वस्त्यादि वाचयेत् ॥
मी है जिसका विधान उन्होंने इसी मध्याय के निम्न पय में किया है:रुते पाम्बिय सम्बन्धे पक्षान्मृत्युम गाविणाम् । तदान व बाई नारीवैषल्पवम् । १८५॥ स पचनामतमामा पवा कि पासम्बन्ध (सगाई) मारपरिभाई बगांली (कुटम्बी) मर प्राय तो फिर यह विवाहसाबहीबारचे । पति किश आया होगही निरनिबाणी!!
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