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[१४] जन दूर देशान्तर को मया हो, और उसका कोई समाचार पूर्वादि अवस्था-क्रम से २८, १५ या १२ वर्ष तक सुनाई न पड़े तो इसके बाद उसका विधिपूर्वक प्रेतकर्म ( मृतक संस्कार ) करना चाहियेसूतक ( पातक ) मनाना चाहिये-और श्राद्ध करके छह वर्ष तक का प्रायश्चित्त लेना चाहिये। यदि प्रेतकार्य हो चुकने के बाद वह मा जाय तो उसे ो के घड़े तथा सर्व औषधियों के रस से नहलाना चाहिये, उसके सब संस्कार फिर से करके उसे यज्ञोपवीत देना चाहिये
और यदि उसकी पूर्वपत्नी मौजूद हो तो उसके साथ उसका फिर से विवाह करना चाहिये । यक्ष:--
रदेशं मते वाती दूरतः श्रूयते न चत् । पदि पूर्ववयस्तस्य यावत्स्यादप्राविंशतिः ॥ ८० ॥ तथा मध्यवयस्कस्य ह्यब्दाः पंचदशैव तत् । तथा भूवयस्कस्य स्याद् द्वादशवत्सरम् ।। ८१ मत ऊचे प्रेतकर्म कायं तस्य विधानतः । श्राद्धं कृत्वा षडब्दं तु प्रायाश्चत्तं स्वशक्तिः ।।२।। प्रेतकायें कृते तस्य यदि चेत्पुनरागतः ! घृतकुम्भेन संस्नाप्य सर्वोपधिभिरप्यथ ॥ ८३ ॥ संस्कारान्सकलान् कृत्वा मौजीवन्धनमाचरेत् । पूर्वपल्या सहैवास्य विवाहः कार्य एवहि ॥ ४ ॥
पाठकगस ! देखिये, इस विडम्बना का भी कुछ ठिकाना है ! दिना मरे ही मरना मना लिया गया !! और उसके मनाने की भी जरुरत सममा नई !!! यह विडम्बना पूर्व की विडम्बनामों से भी बढ़ गई है । इस पर अधिक दिखने की जरूरत नहीं। जैन धर्म से ऐसी बिना सिर पर की विडम्बनात्मक व्यवस्थाओं का कोई सम्बन्ध नहीं है। (5) सूतक मनाने के इतने धनी भट्टारकजी आगे चलकर लिखते हैं:--
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