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[१५१) बल्कि भगवज्जिनसेन न 'प्राधानादिश्मशानान्त' नाम से प्रसिद्ध होने वाली दूसरे लोगों की उन विभिन्न क्रियाओं को जिनमें • सूतक ' भी शामिल हैं • मिथ्या क्रियाएँ' बतलाया है । इससे जैनियों के लिये सूतक का कितना महत्व है यह और भी स्पष्ट हो जाता है । इसके सिवाय, प्राचीन साहित्य का जहाँ तक भी अनुशीलन किया जाता है उससे यही पता चलता है कि बहुत प्राचीन समय अथवा जैनियों के अभ्युदय काल में सूतक को कभी इतनी महत्ता प्राप्त नहीं थी और न वह ऐसी विडम्बना को ही लिये हुए था जैसी कि भट्टारकजी के इस ग्रंथ में पाई जाती है । भट्टारकजी ने किसी देश, काल अथवा सम्प्रदाय में प्रचलित सूतक के नियमों का जो यह बेढंगा संग्रह करके उसे शास्त्र का रूप दिया है और सब जैनियों पर उसके अनुकूल आचरण की जिम्मेदारी का भार लादा है वह किसी तरह पर भी समुचित प्रतीत नहीं होता । जैनियों को इस विषय में अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिये और केवल प्रवाह में नहीं बहना चाहिये-- उन्हें, जैनदृष्टि से सूतक के तत्व को समझते हुए, उसके किसी नियम उपनियम का पालन उस हद तक ही करना चाहिये जहाँ तक कि लोक-व्यवहार में ग्लानि मेटने अथवा शुचिता * सम्पादन करने के साथ उसका सम्बंध है और अपने सिद्धान्तों तथा व्रताचरण में कोई
____xदेखो इसी परीक्षा लख का 'प्रतिज्ञादिविरोध' नाम का प्रकरण।
* यह सुचिता प्रायः भोजनपान की शुचिता है अथवा भोजन. पान की शुद्धि को सिद्ध करना ही सूनक-पातक-सम्बन्धी वर्जन का मुख्य उद्देश्य है, ऐसा लाटीसंहिता के निम्न वाश्य से घनित होता है:
सूतकं पातकं चापि यथोक्तं जैनशासने । एपणाशुद्धिसिद्धयर्थ वर्जयेन्द्रावकाप्रणीः ॥ ५-२५६ ॥
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