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[१५३] यह प्रार्थना कीजाय कि हे पिप्पल वृक्ष ! मुझे, आपकी तरह पवित्रता, यज्ञयोग्यता और बोधित्वादिगुणों की प्राप्ति होवे और आप मेरे जैसे चिन्हों के (मनुष्याकार के) धारक हो।; प्रार्थना के अनंतर उस वृक्ष तथा अग्नि की तीन प्रदक्षिणाएँ देकर खुशी खुशी अपने घर को जाना चाहिये और वहीं, मोजन के पश्चात् सबको संतुष्ट करके, रहना चाहिये । साथ ही, उस संस्कारित व्यक्ति को पीपल पूजने की यह क्रिया हर महीने इसी तरह पर होमादिक के साथ करते रहना चाहिये और खासकर श्रावण के महीने में तो उसका किया जाना बहुत ही आवश्यक है । यथाः
चतुर्थवासरे चापि संस्नातः पितृसंनिधौं । संक्षिप्तहोमपूजादि कर्म कुर्याद्यथोचितम् ॥ ४५ ॥ शुचिस्थानस्थितं तुझं छेददाहादिवर्जितम्। मनोक्षं पूजितुं गच्छेत्सुयुक्त्याऽश्वत्थभूरुहम् ॥४६॥ दर्भपुष्णादिमालाभिहरिद्राकसुतन्तुभिः । स्कन्धदेशमलंकृत्य मूलं जलैश्च सिंचयेत् ॥४७॥ वृक्षस्य पूर्वदिग्भागे स्थण्डिलस्थाग्निमंडले । नव नव समिद्भिश्च होमं कुर्याद घृतादिकैः ॥ ४ ॥ पूतत्वयज्ञयोग्यत्वबोधित्वाद्या भवन्तु में। स्वद्वदाधिदुम त्वं च मदचिन्हधरो भव ॥४६॥ तं वृक्षमिति संपाय सर्वमंगलहेतुकम् । वृतं वन्दि विपरीत्य ततो गच्छेद् गृह मुदा ॥५०॥ एवं कृते न मिथ्यात्वं लौकिकाचारवर्तनात् । भोजनानन्तरं सर्वान्संतोष्य निवसेद् गृहे ॥५१ ।। प्रतिमा क्रियां कुर्यायोमपूजापुरस्सएम् । भावये तु विशेषेख सा क्रियाऽऽवश्यकी मता ॥५२॥
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