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इससे मट्टारकजी को उक्त पिप्पलपूजा देवमूढता या लोकमूढता में परिगणित होती है । उन्होंने हिन्दुओं के विश्वासानुसार पीपल को यदि देवता समझ कर उसकी पूजा की यह व्यवस्था की है तो वह देवमूढता है पर यदि लोगों की देखादेखी पुण्यफल समझ कर या उससे किसी दूसरे अनोखे फल की आशा रखकर ऐसा किया है तो वह लोकमूढता है; अथवा इसे दोनों ही समझना चाहिये । परन्तु कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि उनकी यह पूजन व्यवस्था मिध्यात्व को लिये हुए है और अच्छी खासी मिध्यात्व की पोषक है। भट्टारकजी को भी अपनी इस पूजा पर प्रकट मिथ्यात्व के आक्षेप का खयाल आया है । परन्तु चूँकि उन्हें अपने ग्रंथ में इसका विधान करना था इसलिये उन्होंने लिख दिया - ' एवं कृते न मिथ्यात्वं ' – ऐसा करने से कोई मिध्यात्व नहीं होता । क्यों नहीं होता ? ' लौकिकाचारवर्तनात् - इस जिये कि यह तो लोकाचार का वर्तना है ! अर्थात् लोगों की देखा देखी जो काम किया जाय उसमें मिथ्यात्व का दोष नहीं लगता ! भट्टारकजी का यह हेतु भी बड़ा ही विलक्षण तथा उनके अद्भुत पाण्डित्य का बोतक है !! उनके इस हेतु के अनुसार लोगों की देखादेखी यदि कुदेवों का पूजन किया जाय, उन्हें पशुओं की बलि चढ़ाई जाय, साँझी होई तथा पीरों की कब्रें पूजी जायँ, नदी समुद्रादिक की वन्दना - भक्ति के साथ उनमें स्नान से धर्म माना जाय, ग्रहण के समय स्नान का विशेष माहात्म्य समझा जाय और हिंसा के आचरण तथा मद्यमांसादि के सेवन में कोई दोष न माना जाय अथवा यो कहिये कि अतत्व को तत्व समझ कर प्रवर्ता जाय तो इसमें भी कोई मिध्यात्व नहीं होगा !! तब मिथ्यात्व अथवा मिथ्याचार रहेगा क्या, कुछ समझ में नहीं भाता !!! सोमदेवसूरि तो, ' यशस्तिलक' में मूढताओं का वर्णन करते हुए, साफ़ लिखते हैं कि 'इन वृचादिकों
यह
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