________________
[ १४३]
सम्बन्ध नहीं है और न जैनियों में, आमतौर पर, नाल का काटा दो एक दिन के लिये रोका ही जाता है; बल्कि वह उसी दिन, जितना शीघ्र होता है, काटदी जाती है और उसको काट देने के बाद ही दानादिक पुण्य कर्म किया जाता है ।
( ग ) तेरहवें अध्याय में भट्टारकजी एक व्यवस्था यह भी करते हैं कि यदि कोई पुत्र दूर देशान्तर में स्थित हो और उसे अपने पिता या माता के मरण का समाचार मिले तो उस समाचार को सुनने के दिन से ही उसे दस दिन का सूतक ( पातक ) लगेगा - चाहे वह समाचार उसने कई वर्ष बाद ही क्यों न सुना हो
। यथा:
पितरौ चेत्मृती स्यातां दूरस्थोपि हि पुत्रकः । श्रुत्वा तद्दिवमारभ्य पुत्राणां दशरात्र के [दशाहं सून की भवेत् ] ॥७१॥ यह भी सूतक की कुछ कम विडम्बना नहीं है । उस पुत्र ने पिता का दाइ कर्म किया नहीं, शत्रु को स्पर्शा नहीं, शत्रु के पीछे श्मशान भूमि को वह गया नहीं और न पिता के मृत शरीर की दूषित वायु ही उस तक पहुँच सकी है परन्तु फिर भी इतने अर्से के बाद तथा हज़ारों मील की दूरी पर बैठा हुआ भी -- वह पवित्र हो जाता है और दान पूजनादिक धर्मकृत्यों के योग्य नहीं रहता !! यह कितनी हास्यास्पद व्यवस्था है इसे पाठक स्वयं सोच सकते हैं !!! क्या यह
--
―
66
जातकर्मणि दाने च नालच्छेदनात्पूर्वे पितुरधिकारः एवं पंचम दशमदिने जन्मदादिपूजनेषु दाने चाधिकारः तत्र विप्राणां प्रतिप्रपि दोषो न ।' - प्रशौचनिर्णय |
""
* इसी तरह पर आपने पति पत्नी को भी एक दूसरे का मृत्युसमाचार सुनने पर दस दिन का सूनक बतलाया है । यथा:मातापित्रोर्यथाशीचं दशाहं क्रियते सुनैः ।
अनके दम्पत्योस्तथैव स्यात्परस्परम् ॥ ७४ ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com