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अनुसार पिता भाई के लिये सूतक की वह कोई मर्यादा भी कायम नहीं रहती जो ऊपर बतलाई गई है । युक्ति-वाद भी भट्टारकजी का बड़ा ही विलक्षण जान पड़ता है ! समझ में नहीं आता एक सूतकी मनुष्य दान क्यों नहीं कर सकता ? उसमें क्या दोष है ? और उसके द्वारा दान किये हुए द्रव्य तथा सूखे अन्नादिक से भी उनका लेने वाला कोई कैसे अपवित्र हो जाता है ? यदि अपवित्र हो ही जाता है तो फिर इस कल्पना मात्र से उसका उद्धार अथवा रक्षा कैसे हो सकती है कि दातार दो दिन के लिये सूतकी नहीं रहा ? तब तो सूतक के बाद ही दानादिक किया जाना चाहिये | और यदि जरूरत के वक्त ऐसी कल्पनाएँ करलेना भी जायज ( विधेय ) है तो फिर एक श्रावक के लिये, जिसे नित्य पूजन-दान तथा स्वाध्यायादिक का नियम है, यही कल्पना क्यों न करली जाय कि उसे अपनी उन नित्यावश्यक क्रियाओं के करने में कोई सूतक नहीं लगता ? इस कल्पना का उस कल्पना के साथ मेल भी है जो व्रतियों, दीक्षितों तथा ब्रह्मचारियों आदि को पिता के मरण के सिवाय और किसी का सूतक न लगने की बाबत की गई है * | अतः भट्टारकजी का उक्त हेतुवाद कुछ भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । वास्तव में उनका यह सब कथन प्राय: ब्राह्मणिक मन्तव्यों को लिये हुए है और कहीं कहीं हिन्दू धर्म से भी एक क़दम आगे बढ़ा हुआ जान पड़ता है + । जैन धर्म से उसका कोई खास
* यथा:
व्रतिनां दीक्षितानां च याज्ञिकत्रह्मचारिणाम् । नैवाशांचं भवेत्तेषां पितुश्च मरणं विना ॥ १२२ ॥
+ हिन्दू धर्म में नाल कटने के बाद जन्म से पाँचवें छठे दिन भी पिता को दान देने तथा पूजन करने का अधिकारी बतलाया है और साथ ही यह प्रतिपादन किया है कि ब्राह्मणों को उस दान के लेने में कोई दोष नहीं । यथा:
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