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[१४१] "पुत्र जाते पिता तस्य कुर्यादाचमनं मुदा । प्राणायाम विधायोचैराचमं पुनराचरेत् ॥ १३ ॥ पूमावस्तूनि चादाय मंगलं कलशं तथा । महावाद्यस्य निर्घोषं बजेद्धर्मजिनालये ॥ १४ ॥ ततः प्रारभ्य सद्विप्रान् जिनालये नियोजयेत् । प्रतिदिनं स पूजार्थ यावन्नालं प्रच्छेदयेत् ॥ १५ ॥ दानेन तर्पयेत् सर्वान् भट्टान मिनुजनान् पिता।" "जननेऽप्येवमेवाऽधं मात्रादीनां तु सूनकम् ॥ तदानाऽधं पितुओतुर्नाभिकर्तनतः पुरा ॥ ६२ ॥ पिता दद्यात्तदा स्वर्णताम्बूलवसनादिकम् । अशुचिनस्तु नैव स्युर्जनास्तत्र परिग्रहे ॥ ६३ ॥ तदान एव दानस्यानुत्पत्तिर्भवेद्यदि ।"
पाठक जन ! देखा, सूतक की यह कैसी विडम्बना है !! घर में मल, दुर्गन्धि तथा रुधिर का प्रवाह बह जाय और उसके प्रभाव से कई कई पीढी तक के कुटुम्बी जन भी अपवित्र हो जाय-उन्हें सूतक का पाप लग जाय-परन्तु पिता और भाई जैसे निकट सम्बन्धी दोनों उस पाप से अछूते ही रहें !!! वे खुशी से पूजन की सामग्री लेकर मंदिर जा सकें और पूजनादिक धर्मकृत्यों का अनुष्ठान कर सकें परन्तु दूसरे कुटुम्बी जन नहीं !! और दो एक दिन के बाद जब यथारुचि नाल काट दी जाय तो वह पाप फिर उन्हें भी आ पिलचे-वे भी अपवित्र हो जाय-और तब से पूजन दानादि जैसे किसी भी अच्छे काम को करने के वे योग्य न रहें !!! इससे अधिक और क्या विडम्बना हो सकती है !!! मालूम नहीं भट्टारकजी ने जैन धर्म के कौन से गूढ तत्व के आधार पर यह सब व्यवस्था की है !! जैन सिद्धान्तों से तो ऐसी हास्यास्पद बातों का कोई समर्थन नहीं होता । इस व्यवस्था के
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