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[१४७] चरण बनाया है और उसकी जगह पर 'षण्ढपाषण्ढपापिनाम्' नाम का चरण रख दिया है ! ! ' इसी तरह पर और भी कितने ही कयन अथवा विधि-विधान ऐसे पाये जाते हैं, जो सूतक-मर्यादा की नि:सार विषमतादि-विषयक विडम्बनाओं को लिये हुए हैं और जिन से सूतक की नीति निरापद् नहीं रहती; जैसे विवाहिता पुत्री के पिता के घर पर मर जाने अथवा उसके वहा बच्चा पैदा होने पर सिर्फ तीन दिन के सूतक की व्यवस्था का दिया जाना ! इत्यादि । और ये सब कयन भी अधिकांश में हिन्दू धर्म से लिये गये अथवा उसकी नीति का अनुसरण करके लिखे गये हैं। ___ यहाँ पर मैं अपने पाठकों को सिर्फ इतना और बतला देना चाहता हूँ कि भट्टारकजी ने उस हालत में भी सूतक अथवा किसी प्रकार के अशौच को न मानने की व्यवस्था की है जब कि यज्ञ (पूजन हवनादिक ) तथा महान्यासादि कार्यों का प्रारम्भ कर दिया गया हो और बीच में कोई सूतक आ पड़े अथवा सूतक मानने से अपने बहुत से द्रव्य की हानि का प्रसंग उपस्थित हो। ऐसे सब अवसरों पर फौरन शुद्धि कर ली जाती है अथवा मान ली जाती है, ऐसा नट्टारकजी का कहना है । यथाः
समारग्धेषु वा यशमहान्यासादिकर्मसु । बहुद्रव्यविनाशे तु सद्यःशौचं विधीयते ॥ १२४ ॥
परन्तु विवाह-प्रकरण के अवसर पर आप अपने इस व्यवस्थानियम को भुला गये हैं। वहाँ विवाह-यज्ञ का होम प्रारम्भ हो जाने पर जब यह मालूम होता है कि कन्या रजस्वला है तो आप तीन दिन के लिये विवाह को ही मुलतवी ( स्थगित ) कर देते हैं और चौथे दिन उसी अग्नि में फिर से होम करके कन्यादानादि शष कार्यों को
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